सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

काश तुम इसे राज़ ही रहने देती रोज़ ।


1997 का साल । दुनिया भर में धमाल मचा चुकी प्रेम-कहानी टाइटैनिक सिनेमा घरों में थी । फिल्म के प्री क्लाइमेक्स का एक सीन जिसने प्रेम कहानी को दुखांत दिया 
उसका दर्द बरसो तक दुनिया भर के लोगों को सालता रहा । बर्फीले समंदर के हाड़ जमा देने वाली पानी में जान बचाने की कोशिश करते जैक और रोज़ । शिप से ही टूटे 
 लकड़ी के एक पट्टे पर जिंदगी बचाने की जद्दोजहद । अपनी प्रेमिका को लिटा जैक खुद पानी में ही रहता है क्योंकि लकडी का वो पट्टा दो लोगों की जान बचा नहीं सकता ।
 ठंड से हाइपरथर्मिया में जैक की मौत हो जाती है । हॉल से निकलते वक्त न जाने कितने दर्शक घर जाते-जाते ये बात सोचते रहे क्या जैक को बचाया नहीं जा सकता था ?
 क्या उस पट्टे पर दो लोगों को संभालने की जगह नहीं था ? क्या रोज़ ने जैक को बचाने की पूरी कोशिश की थी ? और फिल्मी प्रेम कहानियों के शौकीन आखिर में खुद को समझा
 ही लेते हैं कि वाकई इस प्रेम कहानी में कोई मिलावट नहीं थी , न ही रोज़ की मुहब्बत में । क्लाइमेक्स ऐसा ही था जैसा किसी प्रेमकहानी का होना चाहिए । 
 फिल्म एक क्लासिक आइकॉनिक बन गई और मूलत गैर रोमांटिक फिल्मों के लिए मशहूर हॉलीवुड को एक बंबईया फिल्म टाइप लवस्टोरी दे गई 

अब इतने सालों बाद फिल्म में रोज़ की भूमिका निभाने वाली केट ने भी माना है कि फिल्म एक दुखांत से बच सकती थी । फिल्म में जैक को बचाया जा सकता था ।
immy Kimmel live नाम के एक शो में एक सवाल के जवाब में केट खुलकर ये बात मानी कि जो सवाल दर्शकों के मन में इतने सालों से है उस ने
 उनके ज़हन को भी बेचैन किया है । अगर फिल्म की नायिका ऐसा सोचती है तो फिर क्योंकर डायरेक्टर जेम्स कैमरुन ने इस तरह के क्लाइमेक्स का चुनाव किया , 
वजह कैमरुन ने 2012 में दिए अपने एक साक्षात्कार में दी भी कि जैक की मौत  फिल्म की स्क्रिप्ट की डिमांड थी ।जिससे बचा नहीं जा सकता था ।
 साफ है कैमरन जानते हैं कि सदियों से साहित्य और सिनेमा में दर्ज उन्हीं प्रेम कहानियों ने असर छोड़ा है जो अधूरी रही हैं, जिन्हें दुखांत हासिल हुआ । 

लेकिन अब जब केट विंसलेट ने कहानी के उस मोड का ज़िक्र किया जहां से क्लाइमेक्स बदल भी सकता था तो एक ज़माने से  फिल्म को कल्ट लव स्टोरी मानने वाले दर्शक 
खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं कि अफसाना चाहे झूठा ही सही , सुखद तो था , उसमे एक यूटोपियन रोमांटिसिज्म तो था । सच्चाई तो वैसे ही कड़वी होती है 
कम से कम किस्से कहानियों की दुनिया तो पर्दानशीं ही रहने दिया होता । फिल्म देखकर बड़े हुए लोग इसे एंड ऑफ इनोसेंस के फेज़ की तरह देख रहे थे । ये बचपन के दौर से 
बाहर आने की तरह ही है । तो माई डियर रोज़ अच्छा होता कि आप राज़ को राज़ ही रहने देंतीं । ये तो कुछ-कुछ ऐसा ही हुआ कि हम को मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन...

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

क्योंकि ये पल तो जाने वाला है



एक पल । यूं तो कहने को हर रोज 24 घंटे में हम कितनी पल देखते हैं । सुनते हैं । हर पल कुछ कर रहे होते हैं ...कुछ बना रहे होते हैं तो
कुछ यूं ही गवां रहे होते हैं । सागर के विस्तार जैसे इस वक्त के समंदर  से धीरे-धीरे इसी तरह ये मोती जैसे पल रोज़ाना कैसे हाथों से फिसल जाते हैं ...और काल
की रेत में समा जाते हैं बिना किसी वजूद के । इन गंवाएं पलों पर किसी तरह की छाप भी नहीं होती न कोई रंग होता है न इनका कोई स्वाद और
न ही कोई गढन । रीते ...खाली ...सूने ऐसे ही होते हैं ये पल जो शाख से किसी पत्ते की तरह गिर जाते हैं ।

तो ये लाज़िम है कि ऐसे किसी भी पल को गंवाया जाए न । कुछ भी उसके साथ किया जाए । पर गंवाया जाए ना । क्यों न उस पल को गुनगुनाया
जाए ...सिला जाए खूबसूरत ख्यालों की पैहरन की तरह ...धुनों से या फिर लफ्जों से । उस पल में रंग भरे जाएं कुछ खूबसूरत रंगीन ख्यालों के ।
इंसानियत और प्यार के ज्जबे से लबरेज  उस पल को एक कंबल बना कर ओढ़ा जाए और रुहानियत महसूस की जाए । क्यों न एक कहानी या
कविता लिखी जाए ....। वो कहानी जिसका पहला पन्ना इंकलाब तो आखिरी पन्ना एक ऐसी दुनिया की परिकल्पना हो जो खूबसूरत हो, समान हो
न्यायपूर्ण हो । क्यों न उस पल को उस खूबसूरत कविता बना दिया जाए जो सूरज की रोशनी और फूलों की खूशबू से ज़िंदगी को गुलज़ार करती हो ।

आओ दोस्तों उस पल को यूं न जाने दो । न रितने दो । न गंवाओ । उस पल को जो तुम चाहे वो बनाओ