सोमवार, 23 नवंबर 2015

विंडो सीट से तमाशा-ए-ज़िंदगी देखते इम्तियाज़




फिल्म तमाशा  पहले विंडो सीट नाम से बन रही थी जिसे बाद में बदला गया । इम्तियाज़ प्रेम कहानियों को अपने अलग अंदाज़ में पेश करने के लिए जाने 
जाते है  । लेकिन अगर कोई इम्तियाज़ की पिछली फिल्मों पर नज़र डाले तो एक बात साफ दिखाई पड़ती है कि उनके फिल्मी व्याकरण का सबसे अहम हिस्सा है 
सफ़र । ऐसा सफर जो बाहर  सड़क से भौगोलिक दूरी को नापता है  लेकिन भीतर से इंसान को खुद के ही करीब लाता है ।  फिल्मी स्क्रीन के लिए बनाई गईं उनकी फिल्मों की कहानियां,डायलॉग,गाने , किरदार
सब अलग होते हैं लेकिन इन सब को   एक धागे में पिरोता है  खुद की खोज  का सफर जो हर कहानी में तय किया जाता है ।

कामयाबी और प्यार के बीच खुद को टटोलता रॉकस्टार का जॉर्डन । मर्सिडीज़ में घूमने वाली साउथ दिल्ली की वीरा  अपने मन की बात घरवालों से न कर उस हवा से करती है जिसे वो  हाईवे पर सटासट दौड़ते ट्रक के ऊपर चढ़ महसूस करती है 
 । जब वी मेट की गीत को तो अपनी ज़िंदगी की राह ही भारतीय रेल के सेंकेड क्लास डिब्बे में ही मिलती है ।  यानि खुद को पाने का अहसास खुद को खोने के बाद ही हुआ 


दरअसल इम्तियाज़ सूफी दर्शन की उस फिलॉस्फी को  बहुत गहराई से मानते हैं जिसमें खुद को पाने का रास्ता खुद को खोने के दौरान ही मिलता है  । ये जीवन 
दर्शन उनके फिल्मी व्याकरण में साफ दिखाई पड़ता है , हालांकि इसके लिए वो बेहद बारीक बिंबों का इस्तेमाल करते हैं वो भी काफी नफासत के साथ । 
उनकी सारी फिल्में भले ही बॉक्स ऑफिस पर बहुत ना चलें लेकिन इंसानी ज़हन की उधेड़बुन और भावनाओं की गहराई को लेकर  उनकी समझ को फिल्म आलोचक भी मानते हैं । 

ऐसे में जब वो अपनी आने वाली फिल्म तमाशा का ट्रेलर ही इस लाइन से शुरु करते हैं कि ' सारी कहानियां एक जैसी क्यों हो'  तो  ये उत्सुकता सहज ही मन में आती है कि 
इस बार वो कौन से बिंब का इस्तेमाल करेंगे ।  फिल्म की शूटिंग फ्रांस  और इटली के बीच कोर्सिका में हुई है । और कहते हैं कि इस कहानी का सिरा भी बाहर के सफर से भीतर की खोज तक बुना हुआ है ।
 
 इम्तियाज़ कहते भी हैं  तमाशा, बताने की एक कोशिश है की आप जो कहानियाँ सुनते है, जो आप के द्वारा बनाई गई है या आपके द्वारा चुनी गई है। जो कभी कभी आपसे जुड़ी हुई होती है।
 कभी जब आप भूल जाते हैं की आप कौन है और कोई आपको याद दिलाता है। यह कोई आसान काम नहीं है कि पूरी जिंदगी भर के किए अनुभव को हटा कर अपने आंतरिक शक्ति से जुड़ना।"


वैसै महाराष्ट्र में खुले में होने वाले नाटकों को तमाशा कहा जाता है जिनकी शुरुआत 16 वीं सदी में हुई थी । इनका दूसरा नाम था मनोरंजन 
 तो क्या फिल्मों के जरिए  खुद की खोज में निकले इम्तियाज़ का तमाशा उस दोहरी कसौटी पर खरा उतरेगा जिसे वो साधने की कोशिश कर रहे हैं ।
 इसके लिए तो इंतज़ार करना होगा लेकिन इससे  बेफिक्र वो जिंदगी की गाड़ी की विंडो सीट पर ही तमाशा-ए-ज़िंदगी देखने में मशगूल हैं और जैसे दुनियावी तौर तरीकों में खो चुके हर इंसान को कह रहे हों ...
"तमाशा खत्म मियां,अब तो मुखौटा उतार दो।"