''मुझे गुस्सा आ गया और मैंने उसे थप्पड़ मार दिया,वो फर्श पर गिर पड़ी ये मैंने देखा,इसके आगे का नहीं पता''।
पांच फुट सात इंच लंबा शख्स कद काठी आचार- व्यवहार से 60 साल के किसी भी उस आदमी की तरह है जैसा कि अमूमन गांव निम्न मध्यमवर्गीय परिवार का कोई शख्स होता है । छोटे से,लेकिन साफ-सुथरे आंगन में धूप का एक टुकड़ा , पॉलिएस्टर के तार पर सूख रहे दो पाज़ामे और कमीज़ पर पड़ उन्हें केसरी रंग दे रह है । दीवारों पर सफेदी का पाउडर कई जगह से हटा हुआ है ,दो कमरे के साधारण से घर में अतिसाधारण
कपड़े पहने ,मकान के पहले और सबसे बड़े कमरे की देहरी पर खड़े होकर वो जो कुछ बता रहा था, वो अपने आप में बेहद असाधारण बात थी ।
ये शख्स सोहनलाल वाल्मिकी है, जो कैमरे के सामने अरूणा शानबाग के साथ हुए अत्याचारों के पीछे की वजह गिना रहा था । ये आजकल हापुड़ के किसी गांव में परिवार के साथ ऐसी ज़िंदगी बिता रहा है जिसे आमतौर पर ठीकठाक ही माना जाता है । मीडिया ने सोहनलाल को ढूंढ निकाला और कई चैनलों पर उसके इंटरव्यू भी चले ,टीवी पर इस बात को लेकर पैनल डिस्कशन भी हुए कि क्या एक शख्स को 42 साल की कैद जैसी सज़ा देने वाले शख्स के लिए महज़ सात साल की सज़ा काफी है, क्या उस पर मृत्युदण्ड का अपराध नहीं चलना चाहिए ।
सोहनलाल को उस वक्त महज़ सात साल की सज़ा हुई थी और उसके किए का शिकार एक युवा लड़की 42 साल तक एक ऐसे जीवन को जीने के लिए अभिशप्त हो गई जिसे ज़िंदगी कहने पर भी सवाल खड़े होते रहे । ये भी बात भी कम अहम नहीं कि इस ज़िंदगी से निजात भी उसे खुद की नहीं, शायद वक्त की मर्ज़ी से मिली
हालिया टीवी चैनल इंटरव्यू में पत्रकार ने चार बार सोहनलाल से एक सवाल बार-बार पूछा कि क्या उसे कभीअपने किए पर पछतावा होता है, सोहनलाल ने भी बार-बार एक ही जवाब दिया ..हां हां मैंने उसको थप्पड़ मारा इस बात का दुख हमें है ।
पत्रकार ने सवाल शायद जिस जवाब को सुनने के लिए बार-बार पूछा वो सोहनलाल ने दिया नहीं । न उसने ये माना कि उसने थप्पड़ मारने के अलावा कुछ और किया और न खुद को किसी भी तरह का दोषी माना । सोहनलाल अब बालबच्चेदार आदमी है उसका भरा पूरा परिवार है और हो सकता है कि फिर से जेल जाने के डर से वो खुद को बेकसूर बता रहा हो । सोहनलाल और दुनिया के तकाज़े को देखें तो लगता है कि कोई भी दोषी ऐसे सवाल पर ऐसे ही रिएक्ट करता , लेकिन क्या कोई शख्स इस बात से इंकार कर सकता है कि अरूणा के साथ जो कुछ हुआ वो इतना ज्यादा दर्दनाक और त्रासद था कि उसमें सोहनलाल के क्रिमिनल रिकॉर्ड न होने और अपनी सज़ा पूरी काटने के तर्क उस नमक की तरह तीखे महसूस होते हैं जो किसी जख्म पर तब डाला जाता है जब सूख चुके ज़ख्म को फिर से कुरेदा गया हो ।
इंटरव्यू में वो कहता है कि उसे उसके कर्मो सज़ा मिल चुकी है और वो अब शांति से रहना चाहता है । जो भी शख्स अरूणा की कहानी को जानता है दिल में एक पीड़ा की उस फांस को ज़रुर महसूस करता होगा जो इतने साल अरूणा ने अपने मन और शरीर दोनों पर झेली, किसी के भी ज़हन में ये बात तो जरुर आती होगी कि कोमा में पड़ी उस लड़की का अंतर्मन विचारों और भावनाओं की किन यात्राओं का हिस्सा बनता होगा । दिल और दिमाग में किस तरह के चित्र आते होंगे । कैसे एक 25 साल की लड़की ने अस्पताल के बेड पर ही पहले युवा से अधेड़ और फिर एक वृद्धा के किरदार को जिया होगा । इन्ही पीड़ाओं से गुज़रते हुए दिमाग में ख्याल उसके गुनहगार को लेकर भी ज़रुर ख्याल आते होंगे, कैसा शख्स होगा वो जिसने एक जिंदादिल लड़की का ये हाल किया , क्या अपनी करतूतों का बोझ उसके दिल -दिमाग पर पड़ता होगा , क्या उसे अपने किए पर पश्चाताप हुआ होगा । क्या इन 42 सालों में उसने ये जानने की कोशिश की उसके गुनाहों की सज़ा जो महिला भुगत रही है
वो किस हाल में है ...?
इन सवालों से जूझते वक्त अगर आप उसी आरोपी को ये कहते सुनें कि नहीं वो अरूणा से कभी मिलने अस्पताल नहीं गया ,या फिर उसे सिर्फ अरूणा को थप्पड़ मारने का अफसोस है , और उसने तो अपनी सज़ा काट ली है । तब जान लीजिए आपको अपने सवालों का जवाब मिल चुका है ।
इंटरव्यू में इतना बोलने के बाद सोहनलाल का बेटा उसे सबसे भीतर वाले कमरे में एक मटमैली सी चारपाई पर बिठा देता है और कैमरे का जूम सोहनलाल के ठंडे, भावहीन चेहरे पर अटक जाता है। एक ऐसा चेहरा जिसमें कुछ भी ढूंढ पाना नामुमकिन है । लेकिन अब आप सोहनलाल को एक और फ्रेम बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं और आगे वाले चैनल पर बढ़ जाते हैं ।
स्वागत है...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअरुणा शानबाग के ज़रिए देश की क़ानून व्यवस्था का ज़ख्म चार दशक से रिस रहा था...लेकिन अरुणा पर हमारे मीडिया का ध्यान तब ही गया जब निर्भया जैसा जघन्य अपराध हुआ या अरुणा ने खुद ही दम तोड़ दिया...ऐसे में सोहनलाल में टीआरपी नज़र आई तो उसे ढूंढ निकाला गया...सोहनलाल ने जो किया था, वो फांसी से कम सज़ा दिए जाने लायक हर्गिज नहीं था...लेकिन वो सात साल की सज़ा पर ही छूट गया...कसूर किसका था हमारी न्याय प्रणाली का...जांच व्यवस्था का....सोहनलाल तो कोई रईस भी नहीं था जो पैसे के दम पर पुलिस वालों या सबूत मुहैया कराने वाली अन्य एजेंसियों को अधिक प्रभावित कर सकता...सोहनलाल के ख़िलाफ़ साक्ष्य मज़बूती से पेश नहीं किए गए जिसकी वजह से उसे फांसी नहीं हुई...लेकिन हमारा क़ानून ये भी कहता है कि एक ही अपराध के लिए आपको दो बार सज़ा नहीं दी जा सकती...अरुणा मुकम्मल इनसाफ़ के बिना 42 साल तक दर्द सहने के बाद इस दुनिया से चली गई...अरुणा की मौत मीडिया के लिए एक-दो दिन का मुद्दा थी जिसके चलते सोहनलाल एक बार फिर प्रासंगिक हो गया था...इसलिए उसे पाताल से भी बाहर निकाल लिया गया...वही सवाल पूछे जाने लगे जो निश्चित तौर पर मुकदमे के दौरान भी पूछे गए होंगे...मीडिया के लिए अरुणा शानबाग या सोहनलाल सिर्फ ज़रिया है, उसकी असली फ़िक्र मौके को भुनाना है...यही टीआरपी का अर्थशास्त्र है...
हटाएंजय हिंद...
अप्रतिम, बेजोड़, बेमिसाल
जवाब देंहटाएंकिसी को बार-बार सजा नहीं दी जा सकती। हालांकि ढूंढ लिए जाने पर फिर से सोहनालाल उस सजा को भोगना शुरू कर ही चुका है जो समाज किसी को बहिष्कार के तौर पर देता है। सोहनलाल को सजा चाहे जितनी हुई हो, वो उसवक्त के कानून से थी। जाहिर है कि ऐसा व्यक्ति आसानी से समाज में इतने साल तक जिंदा रहा पर उसके आसपास के लोगो को पता ही नहीं चला कि वो कौन था? हालांकि एक बार सजा दे दिए जाने के बाद सोहनलाल को कठघरे में खड़ा करना बेकार था।
जवाब देंहटाएंयहां सवाल सोहनलाल को शारीरिक कष्ट दिए जाने या फिर कैद की सज़ा दिए जाने को लेकर नहीं है,
जवाब देंहटाएंसवाल सिर्फ इतना है कि दर्द का जो सफ़र अरूणा शानबाग ने इतने साल तय किया ,क्या उसका हज़ारवां हिस्सा भी सोहनलाल वाल्मिकी को छू भर कर भी गया ?
यहां सवाल सोहनलाल को शारीरिक कष्ट दिए जाने या फिर कैद की सज़ा दिए जाने को लेकर नहीं है,
जवाब देंहटाएंसवाल सिर्फ इतना है कि दर्द का जो सफ़र अरूणा शानबाग ने इतने साल तय किया ,क्या उसका हज़ारवां हिस्सा भी सोहनलाल वाल्मिकी को छू भर कर भी गया ?