शनिवार, 19 दिसंबर 2015

देखें....आखें न चुराएं

टीवी पर एक विज्ञापन आप सभी ने देखा होगा । जिसमें एक लड़का अपनी सहकर्मी से कहता है-हम कमाएंगे कब और अच्छा काम करेंगे कम । मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर कंपनी
के विज्ञापन में तो इंटरनेट फोन में ट्रांसफर कर अच्छे काम की इतिश्री कर ली जाती है । लेकिन आम तौर पर हम सोचते हैं कि जब तक जेब में पैसे नहीं होंगे तो कैसे समाज के
लिए कुछ कर सकते हैं । शायद यही वजह है कि कई लोग समाज के लिए अपना फर्ज निभाना चाहते हैं लेकिन दुनियावी सोच आड़े आ जाती है । सोचते हैं अभी ये जोड़ लें
अभी ये कर लें फिर कुछ अच्छा काम करेंगे । लेकिन राजस्थान के एक छोटे से गांव के एक शख्स ने जो किया उसने इस दुनियादारी की संकीर्ण गली में एक छोटी सी
लेकिन उजियारी खिड़की खोली है। बात हो रही है जयपुर से 70 किमी दूर शाहपुरा में रहने वाले हनुमान सहाय की । इनकी रोज़ी रोटी एक छोटी सी दुकान से चलती है जहां ये
सूखी चायपत्ती बेच गुज़ारा करते हैं । इस साधारण से शख्स ने ऐसा कुछ किया जिसे न सरकार न प्रशासन कोई नहीं कर पाया । इन्होंने गांव के लिए एक सरकारी अस्पताल बनवाया है
अपने बूते । इसके लिए इन्हें अपना घर तक बेचना पड़ा और 1 करोड़ इकट्ठा कर एक 27 बेड का अस्पताल बनवा डाला । लेकिन एक साधारण सी गुज़र बसर
करने वाले इस शख्स ने भला ऐसा क्यों किया । कहानी छोटी सी है और अमूमन हर शख्स का कभी न कभी ऐसे हालातों से पाला पड़ता है जब आपकी आँखों
के सामने कुछ ऐसा घट जाता है जो न सिर्फ मन पर  बल्कि दिमाग पर भी चोट करता है । रेडलाइट सिग्नल पर भीख मांगते बच्चे, कड़ाके की ठंड में भी फ्लाइओवर , फुटपाथों
पर रात काटती मजबूर ज़िंदगियां।ये कुछ ऐसी सच्चाई है जो एकदम से आंखों के सामने आ जाती है, दिल में कसक पैदा करती हैं । चेतना कह उठती है कि इन
ज़िंदगियों को जीने लायक बनाने के लिए कुछ तो करना चाहिए । लेकिन अकसर ऐसी इच्छाएं सिग्नल पार करने के बाद रोज़ाना का जीवन जीने की जद्दोजहद में कही दब जाती हैं । गुम हो जाती
हैं । लेकिन कुछ लोग हैं जो ऐसे वाक्यों को भुला नहीं पाते और वहीं से शुरु होती है कुछ अच्छा कर गुज़रने की पहली सीढ़ी । हनुमान सहाय अपने पिता से मिलने गांव आए
वहां एक महिला को प्रसव पीड़ा हुई । दिक्कत ये कि आस पास कोई अस्पताल था ही नहीं । काफी देर ये महिला इसी  तरह तड़पती रही और किसी  तरह दाई की मदद से
घर में ही बच्चे ने जन्म लिया । हनुमान वहां से अपने घर आ गए लेकिन उस महिला की मजबूरी को वो भुला नहीं पाए तय किया कि वहां अस्पताल बनाएंगे. कैसे करेंगे उन्हें
नहीं मालूम था लेकिन इतना ज़रुर पता था कि अस्पताल तो बनाना है । रास्ते में दिक्कत आई, पैसा बड़ी समस्या था ,जिसके लिए उन्होने घर तक बेचा लेकिन आज उनका सपना पूरा हो गया है ।
अस्पताल अपनी जगह पर हैं । वहां डॉक्टर और नर्स भी सेंक्शन हो गए हैं ।

हममे से अधिकतर लोग समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं,लेकिन वो क्या फर्क है जो हनुमान सहाय को बाकी लोगों से अलग बनाता है ? क्यों वो ऐसा कुछ कर जाते
हैं जिसके बारे में बाकी सोचते ही रह जाते हैं । दरअसल वो देखते हैं । जी हां देखने का मतलब सिर्फ देखना नहीं,बल्कि उस दर्द को ,उस मजबूरी को समझना भी है जो
कुछ लोगों के लिए हालातों की वजह रोज़ाना की सच्चाई है । हनुमान सहाय जैसे लोग देखते हैं और इस सच्चाई से आंखें नहीं फेरते । जैसे अधिकतर लोग सिग्नल पार करने के बाद कर लेते हैं

सोमवार, 23 नवंबर 2015

विंडो सीट से तमाशा-ए-ज़िंदगी देखते इम्तियाज़




फिल्म तमाशा  पहले विंडो सीट नाम से बन रही थी जिसे बाद में बदला गया । इम्तियाज़ प्रेम कहानियों को अपने अलग अंदाज़ में पेश करने के लिए जाने 
जाते है  । लेकिन अगर कोई इम्तियाज़ की पिछली फिल्मों पर नज़र डाले तो एक बात साफ दिखाई पड़ती है कि उनके फिल्मी व्याकरण का सबसे अहम हिस्सा है 
सफ़र । ऐसा सफर जो बाहर  सड़क से भौगोलिक दूरी को नापता है  लेकिन भीतर से इंसान को खुद के ही करीब लाता है ।  फिल्मी स्क्रीन के लिए बनाई गईं उनकी फिल्मों की कहानियां,डायलॉग,गाने , किरदार
सब अलग होते हैं लेकिन इन सब को   एक धागे में पिरोता है  खुद की खोज  का सफर जो हर कहानी में तय किया जाता है ।

कामयाबी और प्यार के बीच खुद को टटोलता रॉकस्टार का जॉर्डन । मर्सिडीज़ में घूमने वाली साउथ दिल्ली की वीरा  अपने मन की बात घरवालों से न कर उस हवा से करती है जिसे वो  हाईवे पर सटासट दौड़ते ट्रक के ऊपर चढ़ महसूस करती है 
 । जब वी मेट की गीत को तो अपनी ज़िंदगी की राह ही भारतीय रेल के सेंकेड क्लास डिब्बे में ही मिलती है ।  यानि खुद को पाने का अहसास खुद को खोने के बाद ही हुआ 


दरअसल इम्तियाज़ सूफी दर्शन की उस फिलॉस्फी को  बहुत गहराई से मानते हैं जिसमें खुद को पाने का रास्ता खुद को खोने के दौरान ही मिलता है  । ये जीवन 
दर्शन उनके फिल्मी व्याकरण में साफ दिखाई पड़ता है , हालांकि इसके लिए वो बेहद बारीक बिंबों का इस्तेमाल करते हैं वो भी काफी नफासत के साथ । 
उनकी सारी फिल्में भले ही बॉक्स ऑफिस पर बहुत ना चलें लेकिन इंसानी ज़हन की उधेड़बुन और भावनाओं की गहराई को लेकर  उनकी समझ को फिल्म आलोचक भी मानते हैं । 

ऐसे में जब वो अपनी आने वाली फिल्म तमाशा का ट्रेलर ही इस लाइन से शुरु करते हैं कि ' सारी कहानियां एक जैसी क्यों हो'  तो  ये उत्सुकता सहज ही मन में आती है कि 
इस बार वो कौन से बिंब का इस्तेमाल करेंगे ।  फिल्म की शूटिंग फ्रांस  और इटली के बीच कोर्सिका में हुई है । और कहते हैं कि इस कहानी का सिरा भी बाहर के सफर से भीतर की खोज तक बुना हुआ है ।
 
 इम्तियाज़ कहते भी हैं  तमाशा, बताने की एक कोशिश है की आप जो कहानियाँ सुनते है, जो आप के द्वारा बनाई गई है या आपके द्वारा चुनी गई है। जो कभी कभी आपसे जुड़ी हुई होती है।
 कभी जब आप भूल जाते हैं की आप कौन है और कोई आपको याद दिलाता है। यह कोई आसान काम नहीं है कि पूरी जिंदगी भर के किए अनुभव को हटा कर अपने आंतरिक शक्ति से जुड़ना।"


वैसै महाराष्ट्र में खुले में होने वाले नाटकों को तमाशा कहा जाता है जिनकी शुरुआत 16 वीं सदी में हुई थी । इनका दूसरा नाम था मनोरंजन 
 तो क्या फिल्मों के जरिए  खुद की खोज में निकले इम्तियाज़ का तमाशा उस दोहरी कसौटी पर खरा उतरेगा जिसे वो साधने की कोशिश कर रहे हैं ।
 इसके लिए तो इंतज़ार करना होगा लेकिन इससे  बेफिक्र वो जिंदगी की गाड़ी की विंडो सीट पर ही तमाशा-ए-ज़िंदगी देखने में मशगूल हैं और जैसे दुनियावी तौर तरीकों में खो चुके हर इंसान को कह रहे हों ...
"तमाशा खत्म मियां,अब तो मुखौटा उतार दो।" 

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

क्या विदर्भ का राह चल निकला है मालवा ?



''सफेद मक्खी का हमला ऐसा था जैसे कि पर्ल हार्बर पर बमों की बारिश , कोई कुछ समझ पाता इससे पहले सब बर्बाद हो गया । पंजाब के एक कपास किसान ने अपनी
 बर्बाद फसल का ऐसे ही शब्दों में शोक मनाया । पिछले दिनों कपास के खेतों में हुआ वो एक ऐसे बुरे सपने  के लौटने जैसा है जिसका दंश यहां की धरती पहले भी झेल चुकी है ।
 90 के दशक में कपास पर अमेरिकन सुंडी के अटैक से बर्बाद हुई खेती ने कुछ ऐसे ही हालात बनाए थे । ये अलग बात है कि इस बार नकली कीटनाशक ने तो किसानों को कहीं का ना छोड़ा ।
बर्बाद फसल ने कई घरों को बर्बाद कर डाला । लेकिन ये बात भी बहुत पुरानी बात नहीं जब 2002 में बीटी कॉटन को खेतों में उतारने के लिए खूब हो हल्ला किया गया था ।
 उसे हर मर्ज़ की दवा बताया गया था ।  दावा किया गया था कि बीटी कपास में बैसिलस-थरंजेनिफसिस का प्रत्यारोपण करने से एक विशेष प्रकार की सुंडी नहीं लगेगी ।
ज्यादा कीटनाशक नहीं डालने पड़ेंगे और  लागत कम पड़ेगी लिहाज़ा महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक कपास  किसान बी टी बीजों के सहारे ही खेती में जुट गए । लेकिन अब एक दशक बाद
विदर्भ को किसानों की कब्रगाह में तब्दील होते सबने देखा है । डर इस बात का है कि कहीं पंजाब इस खतरनाक सिलसिले की अगली कड़ी तो नहीं बन रहा है ।

एक आधिकारिक सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि पंजाब में  2000 से लेकर 2010 तक करीब 7 हज़ार किसानों ने खुदकुशी की है । 2010 के बाद भी किसानों की ये हताशा रुकी नहीं है ।
ये सारी आत्महत्याएं कर्ज के  दुष्चक्र  के चलते हुई हैं ऐसे में ये सवाल अपने में डराता है कि क्या पंजाब वाकई महाराष्ट्र की राह चल निकल पड़ा  , तो क्या कपास की बीटी बीजों से खेती
ऐसे हालातों के लिए बड़े तौर पर जिम्मेदार है ?  जानकारों की राय में बीटी कॉटन की खेती के एक दशक बाद ये साफ हो गया है  कि तात्कालिक रुप से ये किसानों के लिए
फायदे का सौदा हो सकता है लेकिन बाद में ये महंगी ही साबित होती है ।  सही है कि इस से सुंडी नहीं आई लेकिन दूसरी तरह की नई बीमारियों से ये खेती को बचा पाने में नाकमयाब साबित
हुई । महंगे रासायनिक स्प्रे के ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल और दूसरे खर्चों ने महाजन के ऊपर  किसान की निर्भरता को खतरनाक तरीके से बढ़ा दिया है ।

ज्यादातर पंजाब के बठिंडा,मुक्तसर,फिरोज़पुर और फरीदकोट में बी टी कपास की खेती होती है । रासायनिक स्प्रे और कीटनाशकों ने यहां के पानी का ऐसा हाल कर दिया है कि कैंसर की बीमारी आम
हो चली है । बठिंडा से तो एक ट्रेन बीकानेर के लिए हर रोज़ चलती है, जिसे कैंसर एक्सप्रेस ही कहा जाने लगा है । बीकानेर के पास एक सरकारी कैंसर अस्पताल है,जहां सस्ता इलााज किया जाता है ।

लेकिन मूल सवाल वही है कि क्या खेती के व्यवसायीकरण ने बड़े पैमाने पर ऐसे हालात पैदा किए हैं कि जहां किसानों को खेती का रास्ता आत्महत्या कर तय करना पड़ रहा है ?  ऐसा क्यों देखने में आ रहा है कि
ज्यादातर वही किसान खुदकुशी करते दिख रहे हैं जो नकदी फसलों की खेती से जुड़े हुए हैं ?  गन्ना और कपास की खेती करने वाले महाराष्ट्र के किसानों का हर साल बढ़ता आंकड़ा इस बात की गवाही देता
है कि ये दरअसल ' मुनाफा ही सब कुछ है 'को मानने वाला अर्थतंत्र ही ऐसे हालात पैदा कर रहा है ।  खेती में मुनाफ़ा कमाने की सरकार की नीति ने ही किसानों के सामने ये रास्ता रख दिया है क्यों जानकार
इस बात की तस्दीक करते हैं कि आत्महत्याओं का ये सिलसिला 90 के दशक के उदारीकरण के बाद  पैदा हुआ ऐसा संकट है जो अब एक तल्ख सच्चाई की तरह आंखें मिला रहा है । पहले अकाल और सूखे से जूझने वाला
किसान ज़िंदगी की जंग इस तरह न हारता था जैसा आज देखने को मिल रहा है । 

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

कोई पूछने वाला क्यों नहीं ?


कुछ समय पहले आमिर खान और करीना कपूर की एक फिल्म आई थी तलाश । फिल्म में एक कॉल गर्ल सड़क दुर्घटना का शिकार हो जाती है और मर जाती है । कुछ सालों बाद अजीबोगरीब  एक्सिडेंट
के अनसुलझे केस सुलझाने के दौरान एक पुलिस वाले की मुलाकात  एक लड़की से होती है...जिससे उसे अपने केस के साथ-साथ उस कॉल गर्ल की मौत की असलियत भी पता चलती है । वो लड़की पुलिसवाले
बने आमिर खान से कहती है । ......................क्या साहेब इतना बड़ा शहर है मुंबई, लेकिन फिर भी एक लड़की एक रात गायब हो जाती है और कोई पूछने वाला भी नहीं कि वो कहां गई ?

शीना हत्याकांड में ये सवाल कितना मौजूं है ये इसी बात से पता चलता है कि 3 साल पहले गायब हुई एक लड़की की कितनी परवाह इस दुनिया को थी ....वो साफ़ हो गया । सबसे ज्यादा दुख इसी बात का है कि
उसके गायब होने के बाद उसकी गुमशुदगी को लेकर जो जवाब आ रहे हैं वो सदमे में डालने वाले हैं ।

 यूं शीना इस दुनिया में कोई अकेली नहीं थी । उसके नाना नानी, भाई ,सौतेला पिता,ब्वॉफ्रेंड, सहयोगी,दोस्त सब लोग थे । लेकिन ये कोई कैसे मान ले कि इनमें से किसी को नहीं पता कि वो लड़की एकाएक कहां चली गई
,और  उसे तलाशने की कोई कोशिश क्यों नहीं हुई  ?  उसके भाई मिखाइल ने कहा कि उसकी मां ने उसे बताया कि  वो अमेरिका में है पढ़ रही है ,यही जवाब उसकी सौतेली बहन विधि भी देती है ।
 2007 के बाद कई साल वो पीटर मुखर्जी के घर में रही लेकिन आज वो कहते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि शीना कहां है ?  सवाल ये कि हो सकता है कि करीबी लोगों के दावों पर अब भरोसा नहीं किया जा सकता
क्योंकि गिरफ्तारी का फंदा जिस तरह से सभी पर कस रहा है उस को लेकर इस बात पर यकीन करना मुश्किल है कि  वो कितना सच और कितना झूठ बोल रहे हैं ।


लेकिन असल सवाल उस दुनिया से है जिसे हमें अपने आस-पास नज़रों में तो पाते हैं...लेकिन शायद वो आभासी ही है । परिवार के लोगों के अलावा हर शख्स की ज़िंदगी में बाहर की लोगों ,जान
पहचान वालों , सहकर्मियों की भी एक मौजूदगी अप्रत्यक्ष रुप से होती ही है । कोई बिरला ही अंतर्मुखी होगा जिसका कोई दोस्त या संगी ,साथी न हो । शीना की ज़िंदगी में भी ऐसे लोग थे ।

....क्या वो दोस्त....रिश्तेदार .....सहकर्मी जो शीना को थोड़ा बहुत भी जानते थे कोशिश नहीं कर सकते थे जानने  कि आखिरकार शीना गई तो गई कहां । ये कैसे संभव है कि कोई शख्स
रातोंरात ये फैसला ले ले कि उसे अगली सुबह विदेश जाकर पढ़ाई करनी है और फिर उसकी कोई खोज खबर न मिले ...क्या ऐसे में किसी को शक नहीं होगा.....
क्या किसी भी आम आदमी के ज़हन में ये सवाल नहीं आएंगे कि वो कहां गई । शीना की जनरेशन के लोग सोशल मीडिया पर बहुत एक्टिव रहते हैं ....लेकिन कहा जा रहा है कि  उसकी फेसबुक पर भी काफी समय से कोई पोस्ट नहीं थी ...फिर क्यों नहीं किसी के जहन में आया कि पोस्ट क्यों नहीं की गई ।

हालांकि अब शीना के कुछ दोस्त सामने आए और उन्होंने माना कि उस वक्त उनके ज़हन में भी इस तरह के सवाल आए थे...लेकिन तो वो क्या मजबूरी है जिसके चलते
वो खामोश रह गए । दरअसल इसमें दोष शीना के दोस्तों का नहीं....उस एकाकीपन का है जिसे व्यक्तिगत स्वच्छंदता के नाम पल इस समाज ने सहज ही खुद पर ओढ़ लिया है ।
जहां लोग परवाह तो करते हैं लेकिन एक दायरे में ही है । हाल-चाल भी पूछते हैं । सामने वाला भी झूठा जवाब देता है कि अच्छे हैं । जब संवाद ऐसे सिंथेटिक हो तो आत्मीयता और परवाह कहां से होगी ।


तो क्या प्राइवेसी के नाम पर हमने अपने इर्द गिर्द एक ऐसा दायरा बना लिया है,जिसके आर-पार न तो हम जाना चाहते हैं ना दूसरों की करीब आने की इजाज़त देते हैं । सामूहिकता,सहभागिता
और सहजीवन क्या कहीं पीछे छूट गए हैं । सोशल मीडिया पर दिखने वाले लाइक्स और शेयर असल ज़िंदगी के एकाकीपन को और उघाड़ रहे हैं । तो क्या वाकई शीना इस आभासी दुनिया में
अकेली ही थी ? शायद

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

उफ़ मरजानियों अभी भी वहीं की वहीं हो



क्या मैं दूसरे कैदियों को देख सकती हूं ।....(  इस्मत बोलीं)
पुलिसवालों ने लाइन में लगे दूसरे कैदियों की तरफ इशारा कर कहा.......यही हैं बाकी लोग..... 
इन लोगों ने क्या किया है ?... इस्मत ने फिर पूछा
पुलिस वाले ने जवाब दिया, वही पॉकेटमारी ,चोरी, लूटपाट
इस्मत हंसी और कहा......ये कोई बात है मर्डर किए होते तो ज्यादा मज़े की बात थी 


1940 के दशक में कहानी लिहाफ़ के लिए अश्लीलता के मुकदमे के लिए बेल लेने के दौरा इस्मत चुगताई की ऐसी बेफिक्री देख पुलिसवाले चौंक गए थे । परंपरागत मुस्लिम समाज की एक महिला से
ऐसी बातें उन्होंने शायद पहली कभी नहीं सुनी । ठीक उसी तरह जिस तरह इस दुनिया ने भी इस्मत जैसे शख्सियत को उससे पहले देखा नहीं था । ऊर्दू अदब में इस्मत चुगताई एक ऐसे बेबाक बेलौस तेवर का नाम है , जिनके लिखे किस्से कहानियों के हर लफ्ज, हर वाक्य ने समाज को आईना दिखाया ।

कहा जाता है कि आज के ही दिन 1915 में उनका जन्म हुआ था , हालांकि तारीख को लेकर कोई साफ तथ्य नहीं मिलते हैं, लेकिन माना यही जाता है कि अगस्त के इसी पखवाड़े में उनका जन्मदिन पड़ता है ।
अब इस बात को चाहे एक सदी भले ही बीत गई हो, लेकिन कई सदियां हैं जो रवायतों  की घड़ी की सुईयों में अटक कर रह गई हैं । आज के ही अखबारों की सुर्खियां कह रही हैं कि आज भी 53.2 फीसदी मुस्लिम महिलाएं घेरलू हिंसा का शिकार हैं । तकरीबन 65.9 फीसदी महिलाओं का तलाक जुबानी हुआ है, जबकि 78 फीसदी का एकतरफा ही । जिन 4,710 महिलाओं की राय पर ये सर्वे तैयार किया गया है उनमें से 92 फीसदी मानती हैं कि जुबानी तलाक की रवायत खत्म होनी चाहिए ।

ऐसे में जरा सोचें कि अगर अपने किस्से कहानियों के किसी किरदार की शक्ल में  इस्मत आपा  सामने आ जाएं तो क्या होगा ....यकीनन वो कहेंगीं...अरे मरजानियों आज भी वहीं की वहीं हो, बहुत संभव है कि वो अपनी  मशहूर कहानी मुगल बच्चा  का जिक्र कर दें ... .जिसमें उन्होंने एक औरत का दर्द बेहद खूबसूरती से दिखाने की कोशिश की है...दिखाया है किस तरह एक नवाब अपनी पत्नी को सिर्फ इसलिए छोड़ देता है क्योंकि वो उससे कहीं ज्यादा खूबसूरत थीं, बस इस वजह से उस औरत ने ताउम्र वैधव्य जैसा जीवन बिताया ।


कहने को तो एक सदी बीत गई और पिछले कुछ सालों में तकनीक ने बेहद तरक्की की है, अब फेसबुक है, ईमेल है , वट्सऐप है, जहां संदेश पढ़े और शेयर किए जातें हैं, लेकिन हैरानी इस बात की है कि इस तकनीक ने जहां दुनियाजहान की दिक्कतें हल की हैं तो महिलाओं की मुश्किलें बढ़ाई ही हैं, अब मियां सात समंदर पार बैठकर स्काईप पर ही तलाक कह देता है । ये लो अब कर लो कुछ भी । जिस गैरबराबरी की दुनिया में इस्मत ने आंखें खोली थी । उनके आंखें बंद करने के बाद भी औरतों के लिए दुनिया का दोतरफा रवैया तिन भर भी बदला नहीं है ,बल्कि अपनी मर्ज़ी थोपना और आसान ही हो गया है ।  ऐसे में ये बहुत मौजूं है कि इस्मत अपने जाने पहचाने अंदाज़ में खड़ी हों और आधी आबादी को एक बार याद दिलाएं कि देखो ज्यादा कुछ मत करो । बस एक दफा मेरी ज़िंदगी की ओर ही देख लो ।

''देखो कि मैंने किस तरह अपनी जिंदगी जी है । जब मैं 13 साल की थी...तब से ही  घर में कोशिश गई कि मैं सीना- पिरोना सीखूं ,लड़कियों वाले काम सीखूं ... तब से लेकर मरने तक मैंने सिर्फ रवायतें ही तोड़ी और अपनी बनाई लकीर पर ही चलीं ।  उफ मेरे मिजाज में बला की जिद थी । चाहे फिर वो मां-बाप की ओर से जबरन शादी कराए जाने को लेकर मुखालफत हो या फिर पढाई- लिखाई को लेकर उस वक्त की दकियानुसी सोच का विरोध । हद तो तब थी जब मैंने अपने अब्बा हुज़ूर को अल्टीमेटम दे दिया था कि अगर आगे पढ़ने नहीं देंगे तो मुसलमान से क्रिश्चियन बन जाऊंगी । याद करो जब मैंने अलीगढ़ के उस मुल्ला के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद की थी जिसने शहर के पहले गर्ल्स कॉलेज को वेश्यावृत्ति का अड्डा करार दिया था । तब मैं उस मुल्ला के खिलाफ़ खिलाफ कोर्ट तक गई थी । 

1942 में मैंने लिहाफ़ लिखी, 1944 में लाहौर में इसी कहानी पर अश्लीलता का मुकदमा चला । मुझ पर दबाव डाला गया कि मैं माफी मांग कर बात खत्म करूं लेकिन मैंने लड़ना बेहतर
समझा और मुकदमा लड़ा । हर बार अदालत में जाते समय मुझ पर फब्तियां कसीं जातीं परंतु मैंने केस जीत लिया ।''

तो ये तो तब की बात रही जब इस्मत आपा किस्से कहानियों के किरदारों से निकल कर सामने आ जाती हैं.. अकस्मात ही । लेकिन उनके समकालीन और उतने ही विवादास्पद लेखक मंटो ने भी अपने संस्मरण में
इस्मत के बारे में बेहद रोचक किस्सा लिखा है । दरअसल मंटो और इस्मत दोनों को ही अश्लीलता के लिए लाहौर कोर्ट से समन मिला था और दोनों साथ ही लाहौर गए थे । मुंबई वापस आने पर एक शख्स ने इस्मत से पूछ डाला 
 'आप लाहौर क्यों गईं थीं....। इस पर इस्मत ने मुस्कुरा कर कहा ...जूते खरीदने, सुना है अच्छे मिलते हैं वहां ।


तो बात सो सही है......लड़कियों कुछ ज्यादा मत करो.....इस्मत की ज़िंदगी की ही ओर देख लो ।

सोमवार, 3 अगस्त 2015

आँखों देखी

क्या कभी उस सच को माना है जो खुद की आंखों से देखा हो...महसूस किया हो । कितने लोग ज़िंदगी में खुद का सच देख पाते हैं...कितने लोग उस सच को ढूंढ पाते हैं जो सामने दिखता हो....लेकिन हम उसे देखना नहीं चाहते । क्या उस सच को सच्चाई मान लेना झूठ नहीं जो हम दूसरों के दिखाए जाने पर देखते हैं । फिल्म आंखों देखी ऐसे ही सवालों से दिल दिमाग झकझोर देती है । फिल्म आंखों देखी एक चलचित्र नहीं बल्कि जीवन अनुभव है
 जो एक शख्स अपने जीवनकाल के उत्तरार्ध के एक हिस्से में महसूस करता है । एकाएक वो फैसला करता है कि वो अब से उसी चीज़ को सच मानेगा जो उसने खुद आंखों से देखी हो । बचपन से ही काला-सफेद , झूठ सच , सही गलत,वैध-अवैध, जाने कितनी ही खांचों में ढाली गई नज़र को सच्चाई की ईमानदार कोशिश मिलती है तो पहले पहलहमारे आस पास के लोग,परिवार और दोस्त पड़ोसी किस तरह उस नज़र को सामाजिक परिवेश में अनफिट ठहराने पर जुट जाते हैं ये कोई आश्चर्य नही ।
जीवन भर दूसरों के बताए सच को सच मानना , दूसरो के चलाए रास्ते पर चलने , सामाजिक रवायतों के लकीर के फकीर बनना और ताउम्र ऐसे ही जीना और मर जाना , फिल्म आँखों देखी वाकई जीवन के एक दूसरे सच के बारे में बताती है ...कि जीवन एक अनुभव यात्रा है । एक ऐसी यात्रा जिसमें कई पड़ाव आते हैं, बचपन,पढ़ाई लिखाई ,नौकरी शादी, बच्चे, और इन सब के बीच पल-पल बढ़ता, पल-पल खुद को जीता जीवन । लेकिन कितने लोग है जो इस दौरान एक ऐसी नज़र रख पाते हैं जिस पर अमीर गरीब, सफेद-काला और तमाम दूसरे फर्क का मुलम्मा नहीं चढ़ता । वक्त के साथ-साथ नज़र में पूर्वाग्रह आते ही चले जाते हैं जैसे लोहे पर जंग लगता है वैसे जीवन को लेकर नज़रिया भी इन्ही पूर्वाग्रहों से कुंद हो जाता है ।

फिल्म बताती है कि एक व्यक्ति का जीवन उसका अपना जीवन है  ,हालांकि ये नज़रिया व्यक्तिवादी नहीं,लेकिन कुछ-कुछ वैरागी या माया मोह से कुछ हद तक मुक्त प्रवृति की ओर इंगित करता है । संगी साथी और परिवार जन होने के बावजूद जीवन के हर पल का साक्षी उसका ऐसा एकाकी जीवन है जिसमें वह सब देख रहा है । सब  महसूस कर रहा है । हंस  रहा है, रो रहा है , गा रहा है नाच रहा ,लड- झगड़ भी रहा है,लेकिन इन सब को एक सापेक्षिक नज़रिए से देखने की कोशिश भी कर रहा है । जीवन को लेकर नज़रिए को आलोचना की कसौटी पर कस रहा है । उसने अपने लिए वर्जनाएं तय नहीं की हैं और वो हर तरह के अनुभव ले देखना चाहता है कि कौन सा अनुभव किस तरह का है , वो इसके लिए किसी और के तर्को और विचारों का मोहताज नहीं ।

इस फिल्म को देखा नहीं जा सकता । सिर्फ महसूस किया जा सकता है । और उसके लिए भी दर्शक को दिल और दिमाग को उलट-पलट कर खाली करना होता है , तभी वो इस अनुभव के लिए कोई जगह बना पाएगा । फिल्म के दर्शक को एक ऐसे अनुभव रुपी सफर पर निकलना होता है जहां के नुक्कड,चौराहें पर लोग तो दिखते हैं लेकिन वो सब आभासी है, इस सफर का राही नितांत अकेला है । राह में दूसरे मुसाफिर भी हैं लेकिन उसकी नज़र,उसके अनुभव उसके अपने हैं जाहिर है उसकी मंजिल भी जुदा होगी,वो दूसरो से अलहदा होगी ,लेकिन उसकी अपनी होगी । ये फिल्म नहीं जीवन दर्शन है ।

मंगलवार, 28 जुलाई 2015

मसान से गुज़री भावनाओं के सफर की कहानी



फिल्म के बेहद शुरुआती 5-7 मिनट में ही जीवन के अंत की कहानी परदे पर है । वो सच जो सब जानते हैं....यहां एक ऐसे परिवार के ज़रिए बताया जाता है  जिसके जीवन की गाड़ी उस सच को रोज़ाना देखकर , अनुभव कर गुज़र रही है जिसे ज़िंदगी का आखिरी पड़ाव कहा जाता है ... दरअसल श्मशान और उसके इर्द गिर्द बनारस की जिंदगी फिल्म का वो सबसे मज़बूत बिंब है जिसके ज़रिए...सारी कहानियां उन किरदारों के जरिए धीरे-धीरे आँखों के सामने आकर एक दुनियावी जगत रच देते हैं । कहानी की सबसे बड़ी खूबसूरती है उसका सहज बहाव जो गंगा की धारा की ही तरह कई अंगडाईया लिए हुए है.... । दो कहानियां । दोनों प्रेम की कहानियां । एक जहां खत्म होती है ...वहां से दूसरी शुरु होती है । कुछ देर बाद दूसरी भी खत्म होती है ...तीसरी की शुरुआत के लिए । और बीच में चलता है गंगा की धारा जैसे भावनाओं का प्रवाह ..कभी मद्धम..कभी सन्न ठहरा हुआ ।
 ...मसलन गंगा तट में सिक्के के लिए गहरे भीतर गंगा की कोख में कूदने वाले गोताखोर जैसे अंदर अंदर चले जाते हैं वैसे भावनाओं की गहराई दिखाने की कोशिश की गई है । देवी के पश्चाताप की ....दीपक के प्रेम की और  ...दुनियावी संस्कारों में डूबे गृहस्थ संजय मिश्रा की मजबूरी की ।

पूरी फिल्म एक सुंदर कविता लगती है जो दिल से निकली हो और उस पर कोई शाब्दिक श्रृगांर का मुलम्मा न चढ़ाया गया हो....एक ऐसी तस्वीर जिस पर किसी चित्रकार की कूची सहजता से चली हो । प्रेमी युगल के लाल गु्ब्बारे को उड़ाना हो ......। प्रेमिका की उंगली की वो लाल अंगूठी हो .... परपल कलर में लिपटा वो छोटा सा गिफ्ट जिसे कभी खोला नहीं गया या फिर ....श्मशान घाट पर रोज़ ज़िंदगी की सच्चाई को रोज़ देखना लेकिन एक दिन अपनी प्रेमिका की मौत के रुप में  अनुभव करना या फिर फिल्म के अंत में एक नाविक ता नायक नायिका से पूछना संगम तट तक चलेंगे क्या ...कुछ ऐक ऐसे बिंब है जिनके सहाने कहानी कहने की कोशिश की गई है । फिल्म का नाम मसान क्यों है वो अंत में ही समझ आता है । अपने भीतर के भावों की गहराई को मसान से गुज़रते देखने के
बाद ज़िंदगी में आगे बढ़ने की जो सहज जीवंत प्रयास है वो आखिरी 5 मिनट में ही समझ आता है । फिल्म की कहानी की ही तरह डायलॉग्स और गानों में काव्यात्मकता है जो बेहद खूबसूरत है । सिनेमाहॉल से बाहर आकर भी एक गीत कानों में बेसाख्ता मद्धम-मद्धम चलता रहता है.....। तू किसी रेल से गुज़रती है....मैं किसी पुल सा थरथराता हूं ।

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

बस्सी साहब के नाम खुली चिट्ठी

सुना है बस्सी साहब और केजरीवाल की मुलाकात में आनंद पर्बत वाली घटना का ज़िक्र हुआ तो बस्सी साहब ने तर्क दिया था कि लड़की ने लड़के को प्रवोक किया था ।

कमिश्नर साहब

बस्सी साहेब आप दिल्ली पुलिस के मुखिया हैं । आप के पास तो गल्ली मुहल्ले में हो रहे जुर्म से लेकर देश के बड़े -बड़े अपराधों से जुड़ी तमाम छोटी बड़ी जानकारियां होतीं होंगीं । अगर आप कह रहे हैं तो मान लेते हैं कि 35 बार चाकू के वार सहने वाली मीनाक्षी ने  ज़रुर लड़के को प्रवोक किया होगा । ये भी कोई बात हुई कि आप किसी के मुंह पर थूक दो .... फिर जवान जहान लड़के तो गर्म खून के होते ही हैं .. गुस्से में लड़की को मज़ा चखा दिया । बिल्कुल सही इस बात की तस्दीक तो मुलायम सिंह भी कर चुके हैं कि लड़कों से तो गलतियां हो ही जाया करती हैं ... .फिर चाहे वो छोटी-मोटी छेड़खानी हो या फिर रेप की वारदात । आपके लिए,आपके साथ सदैव का नारा भले ही दिल्ली पुलिस का हो ...लेकिन आन्ध्र की पुलिस भी लड़कियों की भलाई की कम चिंता थोड़े ही करती है । याद है ना   आन्ध्रप्रदेश के एक डीजीपी ने भी कुछ साल पहले लड़कियों  को याद दिलाया था कि वो अगर छो्टे औऱ भड़काऊ कपड़े पहनेंगी और फिर रोएंगी कि लड़कों ने छेड़ दिया तो ऐसे नहीं चलेगा । कहीं ज़िम्मेदारी तो लड़कियों को भी लेनी होगी । सही बात है पहले लड़कियां भड़काऊ कपड़े पहन उकसाएं और उसके बाद पुलिस मामलों को संभालती चले ..ये क्या बात हुई । बात पुरानी नहीं है बस्सी साहब को भी शायद याद हो ....कि निर्भया केस में अपराधियों के वकीलों ने भी तो सही याद दिलाया था कि अगर आप गैर लड़के के साथ रात में फिल्म देख कर वापस आती हैं तो ऐसी घटनाओं की आशंका बढ़ जाती है  । अपराधी मुकेश भी तो ठीक ही कह रहा था कि अगर वो जज्बाती बेवकूफ लड़की 16 दिसंबर की रात उस सब का विरोध न करती जो उसके साथ हो रहा था तो शायद आज ज़िंदा होती ।

ये लड़कियां भी कितनी बेवकूफ होती हैं ...क्यों आखिरकार विरोध करती हैं...क्यों आवाज़ उठाती हैं....क्यों नहीं चुपचाप सारी चीज़ें जब्त कर ले जाती हैं । मुहल्लों में लफंगों की सीटियां और गंदी नज़रों में भी बुरा मानने जैसा क्या है ....।  कोई गुंडा बस या ट्रेन में बदतमीज़ी करे तो इसमें भी कुछ खराबी नहीं कुछ देर बात खुद ही चुप हो जाएगा । इज्जत पर हाथ डालने वाले भी क्या खास बिगाड़ लेंगे ... आखिर उसके बाद भी ज़िंदा तो रह पाएंगी ...इज्जत चाहे या रहें क्या फर्क पड़ता है जान तो रहेगी । प्रवोक करने का क्या मतलब है । चुप रहने में ही भलाई है । समझती नहीं तभी तो जान से जाती हैं ।बड़े और अनुभवी लोगों की बातें न सिर्फ माननी चाहिए बल्कि उन पर सवाल भी नहीं करने चाहिए ...।  मसलन कोई इन सभी लोगों  से पूछे कि गुड़िया रेप केस में
उस छोटी बच्ची ने आरोपी को कैसे प्रवोक किया होगा... या फिर 3 साल से लेकर 80 साल तक की पकी उम्र की महिला के साथ छेड़खानी , हत्या रेप जैसे मामलों में कौन-कौन कब छोटे कपड़े पहन अपराध के लिए उकसाता होगा ।  गलती बस्सी साहेब या मुलायम या आन्ध्र के उस डीजीपी की नहीं है जो ऐसा सोचते हैं । दरअसल महिलाओं को लेकर असमान और कमतरी की दरिद्र  सोच इस देश के डीएनए में है जिसे बदला नहीं जा सकता । इसलिए बस्सी साहब मैं मानती ही नहीं हूं बल्कि इन सारे सुझावों पर अमल भी करती हूं । सही में दिल्ली में अगर ज़िंदा रहना है तो प्रवोक करना खतरे से खेलना नहीं ।अपनी सुरक्षा
अपने हाथ ।

निवासी दिल्ली





मंगलवार, 14 जुलाई 2015


घर-घर में बाउंसर

bouncer 1 तेज़ अंग्रेजी संगीत, पीली सी कोठी के बेसमेंट में बने एक आधुनिकतम जिम से आ रहा है। यहां आपको 15-20 हट्टे-कट्टे नौजवान 50-50 किलो के डंबल उठाते, ट्रेडमिल पर दौड़ते और फिर थक कर बीच-बीच में आदमकद आईने में खुद को निहारते नजर आएंगे।
महरौली से महज़ दो किलोमीटर दूर असोला और फतेहपुर बेरी केइन गाँवों को बाउंसरों का गाँव कहा जाता है। बाउंसर्स यानी मॉल्स-पब में सुरक्षा के काम में लगे हट्टे-कट्टे पहलवान। दिल्ली और एनसीआर में बाउंसरों का काम करने वाले 90 फीसदी नौजवान इन्हीं गाँवों से हैं।
जिम जाना बन गई आदत
काले ट्रैक सूट में जिम में ट्रेनिंग करते 23 साल के योगेश का कद 6 फीट 2 इंच है। अपने 17 इंच के डोले दिखाते हुए वह बेहद गर्वीले अंदाज़ में बताते हैं,”पिछले 3 साल से मैं गुडग़ांव के एक पब में बतौर बाउंसर काम कर रहा हूं और रोज़ शाम को 2 घंटे वेट ट्रेनिंग के लिए जिम आना उनका रुटीन है।” बाउंसरी का चस्का कैसे लगा पूछने पर वो बताते हैैं, ”देखिए पेशे की शुरुआत बॉडी बिल्डिंग के शौक से शुरू हुई। बॉडी बिल्डिंग के लिए मेरे भाई जिम आते थे, उनके साथ मैं भी आने लगा। बाद में पता चला कि जिम में आने वाले बहुत से लोग बाउंसरी करते हैं तो मैं भी लग गया।”
किशोर भी ले रहे ट्रेनिंग
दिल्ली के 320 गाँवों में से असोला उन गाँवों में एक है, जहां शहरीकरण तेज़ी से पैर पसार रहा है। ज़मीन की कीमतों में उछाल ने जिन गाँववालों को करोड़पति, अरबपति बना दिया है वो धीरे-धीर ठेठ गंवई पृष्ठभूमि से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे हैं। गाँवों के कई घरों में गाय भैंसों के साथ बड़ी महंगी गाडिय़ां भी खड़ी दिख जाएंगी। नतीजन इस गाँव के 15-16 साल के लड़के भी बाउंसर बनने की रेस में शामिल हैं। 17 साल का पुनीत अभी दसवीं का छात्र है, लेकिन पिछले एक साल से वो रोज़ाना जिम में वेट ट्रेनिंग के लिए आता है। वो कहता है, ”अभी से करूंगा तभी तो आगे चलकर बॉडी अच्छी दिखेगी।” वह बताता है कि अगर पढ़-लिखकर कुछ नहीं कर पाए तो कम से कम बाउंसरी तो कर ही लेंगे।
व्यक्तित्व विकास की भी ले रहे ट्रेनिंग
बाउंसर बनने की होड़ दूसरे लोगों के लिए पहेली हो सकती है, लेकिन गाँववालों के लिए नहीं। इलाके में लड़कों का जिम चलाने वाले करण सिंह तंवर (36) समझाते हुए कहते हैं, ”गाँव के लड़कों के लिए ये कोई नई बात नहीं। हमारे यहां अखाड़ों में कुश्ती और कबड्डी जैसे खेल हमेशा युवाओं के शगल में शामिल रहे हैं। ये अलग बात है कि अब अच्छा शरीर रोजगार दिलाने में भी मदद कर रहा है। कुश्ती में पैसा कम होने की वजह से अखाड़ों की जगह अब जिम ने ले ली है और पहलवानी की जगह बाउंसरी ने।”

रविवार, 12 जुलाई 2015

ग्रीस कैसे बना नेशन फॉर सेल ?


बीते दिनों ग्रीस की संसद में एक प्रस्ताव पारित किया गया "कि देश बिकाऊ है ,बोली लगाओ और खरीद लो । इस प्रस्ताव के तहत देश की कई संपत्तियां नीलामी के लिए तय कर दी गई हैं । ये बेहद हैरत भरा है देखना
कि दुनिया को प्लेटो ,अरस्तु का दर्शन देने वाला देश कैसे देखते देखते कंगाल हो गया । अपने राजनीतिक और आर्थिक दर्शन से दुनिया भर को राह दिखाने वाली सभ्यता कैसे उस चौराहे पर खड़ी हो गई जहां से हर रास्ता
बेमंज़िल दिखाई पड़ता है । लोकतंत्र, सत्ता और आर्थिक व्यवस्था के बुनियादी असंतुलन के जिस खतरनाक मुहाने पर ग्रीस इस वक्त खड़ा है उसकी शुरुआत तो कई साल पहले हो गई थी लेकिन शायद किसी इतने खराब हालातों की ऐसी आशंका नहीं लगाई होगी ।
अर्थशास्त्री इस संकट के पीछे के कारणों को लेकर कई तरह की थ्योरी सामने रख रहे हैं कि कैसे यूरो ज़ोन की आर्थिक रिश्तेदारी ने ऐसे हालात पैदा होने में मदद की ? कैसे केंद्रीय बैंक ने प्रतिस्पर्धात्मक अवमूल्यन कर  आग में घी डालने का काम किया । कुछ का कहना है कि संकट ग्रीस की सोशलिस्ट सरकार की कल्याणकारी स्कीमों के बोझ के चलते बढ़ा जबकि कर्ज के मारे अर्थव्यवस्था के कंधे टूटे जा रहे थे वहीं कईयों का कहना है कि ये  पूंजीवादी व्यवस्था के पराभव का शुरुआती दौर है ,जिसके कई खतरनाक पडाव अभी इस दुनिया के लिए देखने बाकी हैं और ग्रीस तो शुरुआत भर है ।
 बात सही भी है ग्रीस का मौजूदा संकट पश्चिम के उस तथाकथित उदारवाद की ऐलानिया विफलता है जिसने उधारवाद की संस्कृति को बढ़ावा दिया। किसी ने कहा सही ही कहा  कि ये संकट आयातीत संकट है , इस बात को अगर बहुत मोटे तरीके से समझा जाए तो एक उदाहरण ही काफी है , दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और शक्तिशाली देश अमेरिका इस संकट में आकंठ डूबा है , बस फर्क इतना है कि बुलबुला अभी फूटा नहीं । यूरोज़ोन की जिस आर्थिक सिस्टम में ग्रीस और दूसरी कमज़ोर अर्थव्यवथा वाले देश खुद को असहाय पा रहे हैं वो दरअसल अमेरिका का ही आर्थिक दर्शन है । अमेरिका की जनसंख्या इस वक्त 30 करोड़ है  पर वहां बाज़ार में 120 करोड़ क्रेडिट कार्ड घूम रहे हैं । सोचने वाली बात है कि किस तरह क्रेडिट कार्डधारी ये कर्ज़ा चुका पाएंगे । यहां क्रेडिट हर बात का मूलमंत्र है ,जितना मन आए कर्ज लीजिए पर उसे लौटाने का कोई रास्ता नहीं ।

ये  चार्वाक का ही दर्शन है जिन्होंने कहा था कि जो बाज़ार में उधार मिले ले आओ ।ज ब चुकता करने का वक्त आए तो हाथ खड़े कर दो ,कोई तुम्हारा क्या बिगाड़ लेगा । ग्रीस ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं ...ये तो शुरुआत है । बात अगर भारत की  करें तो अगर संभले नहीं तो कुछ सालों में यही हाल देखने को मिल सकता है । पिछले ढाई दशक से भारत भी मुक्त अर्थव्यवस्था और उदारवाद के मायाजाल में उलझा हुआ है। विदेशी कर्ज पूंजी निवेश के नाम पर हमारे अर्थतंत्र की  रगों में खून बनकर दौड़ रहा है। सत्ता में बैठे लोग वैचारिक  भिन्नता भूलकर आर्थिक सुधारों की भूलभुलैया में फंसते जा रहे हैं। भारत का परंपरागत आर्थिक चिंतन धूल खा रहा है तथा भोगवादी मानसिकता नई संस्कृति के रूप में उभरी है।

अच्छे दिनों के पैरोकार प्रधानमंत्री विकसित देशों से ऋण लेने को लेकर जिस तरह आतुर दिख रहे हैं ये भी कोई अच्छे संकेत नहीं । ग्रीस की बीमारी जो सबको आज दिख रही है उसके मूल में विकसित देशों के तौर तरीके ही हैं,कुछ समय बाद संभव है कि इसके लक्षण भी दिखाई देने लग जाएं । 

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

वो कौन थीं ?



झाड़ियों के पीछे झुरमुट में से एकाएक निकला वो चेहरा आँखों में ऐसा अटका कि कार के साथ मेरी आँखें भी वहां के मंज़र से गुज़र गई,  लेकिन ज़हन उसी झाड़ी के पास रह गया ।
 रात 12.30 बजे  का वक्त , न्यूज़ चैनल की ईवनिंग शिफ्ट निपटाकर घर लौट रही थी । रोज़ाना ट्रक -टम्पो की धुंआ छोड़ती कतार की भूलभुलैया के बीच में से कालिंदी कुंज के पुल से निकलना किसी चुनौती से कम नहीं रहता था ,ऐसे में उस दिन मैं और ड्राइवर दोनों खुश  थे कि चलो आज वक्त पर घर पहुंचेंगे....ट्रकों की भीड़ कम थी । ऐसे में जैसे लाल बत्ती पार कर आगे की ओर गाड़ी मुडी तो उस घुमावदार मोड़ के किनारे पर चार ऐसे चेहरे नज़र आए जो पहली नज़र में कोई देख ले  तो भूत समझ डर ही जाए । काली रात के स्याह अंधेरे में बेतहाशा पाऊडर की सफेदी से झक सफेद किए लड़कियों के चेहरे  , वो चारों एक झुंड बनाए बैठी थीं जैसे कि स्कूल कॉलेज में लड़कियां खेल के पीरियड में बातें करनी बैठ जाती हैं ।

18-20 साल की उम्र की वो लड़कियां जिनके चेहरों को भूतिया सफेदी और नकली जे़वरात की चमक रात के उस अंधेरे को  ऐसे चुंधिया दे रही थी कि देखने वाला एक पल के लिए हतप्रभ ही हो जाए कि क्या देख लिया ।  सबकुछ आंखों में खटक रहा था और ज़हन में  भी खटक ही गया

खैर हाव-भाव और वो चमक देख इतना समझ आ ही गया कि रात के उस पहर वो लड़कियां वहां क्यों बैठी थी ... कौन थी वो....कहां रहती थी.....ऐसे जाने कितने ही सवाल मेरे जहन में रात भर गुज़रते रहे ।  ये बात उस रास्ते की है जहां.... पर रात के वक्त ट्रक और टैम्पो ही ज्यादा गुज़रते हैं ।  या फिर देर रात ऑफिस की पाली कर घर वापस जाने वाले लोग.... इससे पहले मैंने ऐसी जगहों के बारे में सुना ही था कि फलां फलां जगह हैं जहां लड़कियां  पिक अप प्वाइंट पर खड़ी होती है,लेकिन जब पहली बार ऐसा कुछ देखा तो दिल और दिमाग सुन्न हो गया ।
ऐसी ज़िंदगी आखिर कौन चाहता होगा .... शायद कोई इनसान नहीं । जो लोग ये तर्क देते हैं कि  कुछ लोग लक्ज़री के लिए ऐसी ज़िंदगी का चुनाव करते हैं वो इन लड़कियों के मामले में तो गलत ही हैं ....सरासर । जगह का चुनाव बताता है कि मसला  लक्ज़री की चाह का नहीं ।

वरना कौन आधी रात में अजीब ढंग से सजसंवर कर निकलेगा , रास्ते के उस बदनाम मोड़ पर  इंतज़ार करेगा । ये यकीनन मजबूरी है .. । उस रात उन लड़कियों के नकली चेहरे पर जो हंसी दिख रही थी वो उनके चेहरे पर पुती लाली की ही तरह भद्दी और नकली थी । बेहद नकली । लेकिन इस दृश्य ने ज़िंदगी का जो चेहरा दिखा दिया एकदम असल था । गंदा और भयावह ।

वहीं नजर वहां से हट  गाड़ी  के पीछे वाली सीट पर पड़ी जहां..... कल के अखबार के सिटी पेज का चमकीला सा पन्ना पड़ा था । उस पर सेल्फी विद डॉटर कॉटेस्ट के विनर का चेहरा छपा  था ....हेडिंग थी बेटी बचाओ ...बेटी पढ़ाओ....। मन जाने कैसा सा हो गया


गुरुवार, 25 जून 2015

एरिन से राजेश तक.......



एरिन ब्रोकोविच.....कुछ साल पहले आई इस फिल्म ने न सिर्फ टिकट खिड़की पर  अच्छी खासी कमाई की थी बल्कि फिल्म की अभिनेत्री जूलिया रॉबर्ट्स को बेस्ट अभिनेत्री का ऑस्कर दिलाया था ।
फिल्म की कहानी तीस पार की एक ऐसी महिला की थी जिसे अमेरिकी समाज में आम महिला कहा जा सकता है । दो बार तलाक,तीन बच्चे और कोई  रेगुलर जॉब नहीं । कुल मिलाकर एरिन एक आम अमेरिकी की कहानी है, जिसमें नया मोड़ तब आता है जब वो एक लीगल फर्म में बतौर क्लर्क काम करते हुए अपनी पड़ताल के ज़रिए एक बड़ी कंपनी को घुटने टेकने पर मजबूर कर देती है ।  दरअसल एरिन की पड़ताल दुनिया के सामने ये सच लेकर आती है कि  पैसिफिक एंड इलेक्ट्रिक कंपनी के प्लांट्स ने ने एक पूरे शहर के पानी को 30 सालों तक खतरनाक ढंग से जहरीला बनाया ।  नतीजतन एरिन की फर्म अमेरिकी इतिहास का सबसे बड़ा मेडिकल लीगल सेटलमेंट का केस जाती है ।  ये अलग बात है कि केस की कामयाबी और पैसे के एंगल को लेकर आलोचनाएं भी हुईं ।

एरिन का वाक्या इसलिए याद आया कि उसकी साधारण सी दिखने वाली ज़िंदगी में अगर कुछ खास था तो उसकी हिम्मत , लड़ने की बगैर ये सोचे कि सामने वाला कितना शक्तिशाली है और उसके मुकाबले उसके खुद का अस्तित्व क्या है ....। क्या आखिर में उसे जीत हासिल होगी की नहीं ?  यानि एक चीज़ जो महत्वूर्ण रह गई वो है लड़ने का जज्बा । जो न खुद के अभावों की परवाह करता है ना दुनियादारी के तकाज़े का ।

ऐसी कहानियां गाहे बगाहे आपकी ज़िंदगी में आती जाती रहती हैं और आप पर एक अमिट छाप छोड़ जातीं हैं । एक ऐसी ही कहानी है भोपाल के राजेश की , इस शख्स ने देश के सबसे बड़े बैंक के खिलाफ़ केस लड़ा और जीता भी महज पांचवीं तक पढ़े राजेश की हिम्मत के आगे एसबीआई के वकीलों की ऊंची तालिम बेकार ही साबित हुई । दरअसल बात 2011 की है जब राजेश को मालूम पड़ा कि उसके बैंक अकाउंट से 9200 रुपये गायब हैं , जबकि पैसा उन्होने निकाला ही नहीं था

इसके बाद राजेश ने  वहीं किया जो अमूमन कोई भी आम आदमी करता है,अकाउंट में गड़बड़ी की शिकायत लेकर वो बैंक अधिकारियों के पास पहुंचे तो वहां से भगा दिेए । लेकिन हार तब भी न मानीं बात मुंबई स्थित मुख्यालय में भी पहुंचाई गई  लेकिन बात न बनी ,आख्रिर राजेश ने शिकायत  डिस्ट्रिक कंज्यूमर फोरम  में दर्ज कराई। वकील करने के पैसे तो थे नहीं लिहाज़ा खुद ही अपना पक्ष कोर्ट के सामने रखा । कई सुनवाईयों के बाद फैसला राजेश के हक में गया । इतना ही नहीं कोर्ट ने आदेश दिया कि वो 6 फीसदी ब्याज़ के साथ उसकी खोई रकम अकाउंट में डाले । और ग्राहक को मानसिक तनाव देने के आरोप में बैंक 10 हजार अलग से दे ।

कहानियां दो हैं लेकिन सबक एक ।  हिम्मत का सबक । एरिन और राजेश की कहानियों का देशकाल,  केस सबकुछ अलग है । लेकिन एक बात जो कॉमन है वो है उनकी हिम्मतभरी सोच. जहां तक रोटी-रोजी के ख्यालों से दोचार होता आम ज़िंदगी की आम परेशानियों से रोजाना जूझ रहा शख्स सोच नहीं पाता ।   खुद से जुड़े सच और दूसरे पक्ष से जुड़े झूठ को वो देखने की कोशिश तो करता है , लेकिन मुश्किलात और दुनियावी समझदारी के आगे वो तस्वीर धुंधली हो जाती है ।  सबसे बड़ी हार यहीं से शुरु होती है । जिस सच को आप खुद नहीं देख पाते तो उसे दूसरों को कैसे दिखाएंगे ।

बस राजेश और एरिन जैसे लोगों और दूसरे आम लोगों में यही फर्क है

शनिवार, 20 जून 2015

मैं तो लालू प्रसाद यादव बनना चाहता हूं

एक किस्सा सुनिए----कोटा में   डॉक्टरी का  कंपीटिशन पास करने के लिए  कोचिंग क्लासेस  लेने बिहार से आया  एक लड़का मानसिक दबाव में रहने लगा .  माता पिता की  ख्वाहिश थी  कि वो डॉक्टर बने  ,लिहाज़ा लड़के को कोटा भेजा कि  कंपीटिशन पास करे और डॉक्टर बने......। लेकिन क्लास पर क्लास और रट्टेबाज़ी की संस्कृति में वो कहीं न कहीं खुद को अनफिट पा रहा था । नतीजा ये  कि पढ़ाई का दबाव माता-पिता की इच्छा पर भारी पड़ा और लड़का मानसिक तनाव में रहने लगा ।  बेटे की बिगड़ी मानसिक हालत के बारे में जब माता-पिता  को मालूम पड़ा तो भागे-भागे बिहार से आए और बेटे को मनोचिकित्सक के पास ले गए ।  थेरेपी के दौरान लड़के  ने मनोचिकित्सक को बताया कि वो तो डॉक्टर बनना ही  नहीं चाहता , मां बाप का दबाव था इसलिए कोटा आया, क्लासेस लेनी शुरु भी की ,लेकिन मन का कोई क्या करे लाख चाहकर भी वो कंपीटिशन की रेस में फर्राटे से भाग नहीं पा रहा था और  धीरे धीरे खुद को  पिछड़ता महसूस कर रहा था । वो तो गनीमत थी कि वक्त से पहले उसे मनोचिकित्सक के पास ले जाया गया, वरना डॉक्टर बनने का बोझ कब गले का फंदा बन उसकी जान ले लेता कोई नहीं जानता था ।


कोटा में इस तरह की कहानियां अपने कहीं  ज्यादा दुखद परिणामों के साथ अखबार की सुर्खियों की शक्ल में दिख जाती हैं । सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2015 में अब तक यहां के कोचिंग संस्थानों में पढ़ने वाले 11 छात्र खुदकुशी कर चुके हैं । इनमें से ज्यादातर ऐेसे हैं जो पढ़ाई के दबाव के आगे हार मान बैठे और जिंदगी का खात्मा कर लिया ।

हैरानी इस बात पर है कि बच्चों के जरिए मां-बाप की अपने सपने पूरे करने की जिद बच्चों की जिंदगी पर ही भारी पड़ रही है ।  ये बीमारी हर फील्ड में आ गई है और इस घेरे में बचपन की मासूमियत अनजाने ही रौंदे जा रही है । कभी आपने गौर किया है कि ये इंडियन आइडल ,मास्टरशेफ,इंडिया हैज़ गॉट टैलेंट
में बच्चों के सेलेक्ट न होने पर बुक्का फाड़ कर रोने वाले और जजों की जजमेंट पर ही सवाल उठाने वाले ये लोग कौन हैं जो बच्चों की क्षमताओं को रबड़ की तरह खींचते हैं । क्या ये माता-पिता नहीं जानते कि बचपन को बांधा नहीं जाना चाहिए ,उनके भीतर की क्रिएटिविटी को सिर्फ  बहने देना चाहिए ।


बच्चों का मार्गदर्शन करने ,प्रोत्साहित करने  , ज़िंदगी की नई राह दिखाने में, और उन पर आकांक्षाओं की गठरी डाल देने में फर्क है , माता-पिता को इस महीन लाईन के  बारे में समझना होगा । ये समझना होगा कि बचपन उस स्वच्छंद नदी की तरह होना चाहिए ,जिसमें  सहज लयात्मक बहाव हो न कि ठहराव ।

इंडियन आइडल में एक 5 साल का बच्चा जजेस से बार बार खुद को सेलेक्ट करवाने के लिए शिद्दत से कहता रहा , जज के समझाने के बावजूद वो स्टेज से वापस नहीं गया । पूछने पर उसने बताया कि वो पिछले साल भी ऑडिशन के लिए आया था और फेल हो गया था , इस बात को लेकर उसके पिता ने साल भर न सिर्फ
सुनाया बल्कि ऑडिशन में आने से पहले ये भी ज़ोर देकर कहा था.....कि देखो इस बार जीत के आना


और हां जिस लड़के का जिक्र पोस्ट शुरु होने के वक्त  किया था,वो डॉक्टर नहीं लालू प्रसाद यादव बनना चाहता था ।



रविवार, 14 जून 2015

नहीं तुमने अपनी सज़ा नहीं काटी है


''मुझे गुस्सा आ गया और मैंने उसे थप्पड़ मार दिया,वो फर्श पर गिर पड़ी ये मैंने देखा,इसके आगे का नहीं पता''।

 पांच फुट सात इंच लंबा शख्स कद काठी आचार- व्यवहार से 60 साल के किसी भी उस आदमी की तरह है जैसा कि अमूमन गांव  निम्न मध्यमवर्गीय परिवार का कोई शख्स होता है ।  छोटे से,लेकिन साफ-सुथरे  आंगन में धूप का एक टुकड़ा , पॉलिएस्टर के तार पर सूख रहे दो पाज़ामे और कमीज़ पर पड़ उन्हें केसरी रंग दे रह है । दीवारों पर सफेदी का पाउडर कई जगह से हटा हुआ है ,दो कमरे  के साधारण से घर में अतिसाधारण
कपड़े पहने ,मकान  के पहले और सबसे बड़े कमरे की देहरी पर खड़े होकर वो जो कुछ बता रहा था, वो अपने आप में बेहद असाधारण बात थी ।
ये शख्स सोहनलाल वाल्मिकी है,  जो कैमरे के सामने अरूणा शानबाग के साथ हुए अत्याचारों के पीछे की वजह गिना रहा था ।   ये आजकल हापुड़ के किसी गांव में परिवार के  साथ ऐसी ज़िंदगी बिता रहा है जिसे आमतौर पर ठीकठाक  ही माना जाता है । मीडिया ने सोहनलाल को ढूंढ निकाला और कई चैनलों पर उसके इंटरव्यू भी चले ,टीवी पर इस बात को लेकर पैनल डिस्कशन भी हुए कि क्या एक शख्स को 42 साल की  कैद जैसी सज़ा देने वाले शख्स के लिए महज़ सात साल की सज़ा काफी है, क्या उस पर मृत्युदण्ड का अपराध नहीं चलना चाहिए ।


सोहनलाल को उस वक्त महज़ सात साल की सज़ा हुई  थी और उसके किए का  शिकार एक युवा लड़की 42 साल तक एक ऐसे जीवन को जीने के लिए अभिशप्त  हो गई जिसे ज़िंदगी कहने पर भी सवाल खड़े होते रहे । ये भी बात भी कम अहम नहीं कि इस ज़िंदगी से निजात भी उसे खुद की नहीं, शायद वक्त की मर्ज़ी से मिली

हालिया टीवी चैनल इंटरव्यू में  पत्रकार ने चार बार सोहनलाल से एक सवाल बार-बार पूछा कि क्या उसे कभीअपने किए पर पछतावा होता है, सोहनलाल  ने भी बार-बार एक ही जवाब दिया ..हां हां मैंने उसको थप्पड़ मारा इस बात का दुख हमें है ।

पत्रकार ने सवाल शायद जिस जवाब को सुनने के लिए बार-बार पूछा वो सोहनलाल ने दिया नहीं । न उसने ये माना कि उसने थप्पड़ मारने के अलावा कुछ और किया और न खुद को किसी भी तरह का दोषी माना । सोहनलाल अब बालबच्चेदार आदमी है उसका भरा पूरा परिवार है और हो सकता है कि फिर से जेल जाने के डर से वो खुद को बेकसूर बता रहा हो । सोहनलाल और दुनिया के तकाज़े को देखें तो लगता है कि कोई भी दोषी ऐसे सवाल पर ऐसे ही रिएक्ट करता ,  लेकिन क्या कोई शख्स इस बात से इंकार कर सकता है कि अरूणा के साथ जो कुछ हुआ वो इतना ज्यादा दर्दनाक और त्रासद था कि उसमें सोहनलाल के क्रिमिनल रिकॉर्ड न होने और अपनी सज़ा पूरी काटने के तर्क उस नमक की तरह तीखे महसूस होते हैं जो किसी जख्म पर तब डाला जाता है जब सूख चुके ज़ख्म को फिर से कुरेदा गया हो ।

 इंटरव्यू में वो कहता है कि उसे उसके कर्मो सज़ा मिल चुकी है और वो अब शांति से रहना चाहता है । जो भी शख्स अरूणा की कहानी को जानता है दिल में एक पीड़ा की उस फांस को ज़रुर महसूस करता होगा जो इतने साल अरूणा ने अपने मन और शरीर दोनों पर झेली,  किसी के भी ज़हन में ये बात तो जरुर आती होगी कि कोमा में पड़ी उस लड़की का अंतर्मन विचारों और भावनाओं की किन यात्राओं का हिस्सा बनता होगा । दिल और दिमाग में किस तरह के चित्र आते होंगे । कैसे एक 25 साल की लड़की ने अस्पताल के बेड पर ही पहले युवा से अधेड़ और फिर एक वृद्धा के  किरदार को जिया होगा । इन्ही पीड़ाओं से गुज़रते हुए दिमाग में ख्याल उसके गुनहगार को लेकर भी ज़रुर ख्याल आते होंगे, कैसा शख्स होगा वो जिसने एक जिंदादिल लड़की का ये हाल किया , क्या अपनी करतूतों का बोझ उसके दिल -दिमाग पर पड़ता होगा , क्या उसे अपने किए पर पश्चाताप हुआ होगा । क्या इन 42 सालों में उसने ये जानने की कोशिश की उसके गुनाहों की सज़ा जो महिला भुगत रही है
वो किस हाल में है ...?

इन सवालों से जूझते वक्त अगर आप उसी आरोपी को ये कहते सुनें कि नहीं वो अरूणा से कभी मिलने अस्पताल नहीं गया ,या फिर उसे सिर्फ अरूणा को थप्पड़ मारने का अफसोस है , और उसने तो अपनी सज़ा काट ली है । तब जान लीजिए आपको अपने सवालों का जवाब मिल चुका है ।

इंटरव्यू में इतना बोलने के बाद सोहनलाल का बेटा उसे सबसे भीतर वाले कमरे में एक मटमैली सी चारपाई पर बिठा देता है और कैमरे का जूम सोहनलाल के ठंडे, भावहीन चेहरे पर अटक जाता है। एक ऐसा चेहरा जिसमें कुछ भी ढूंढ पाना नामुमकिन है ।  लेकिन अब आप सोहनलाल को एक और फ्रेम बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं और आगे वाले चैनल पर बढ़ जाते हैं ।

शनिवार, 13 जून 2015

हर एक फ्रेंड ज़रुरी होता है ।



किसी ने सही ही कहा कि लालू और नीतीश रोशनी में ही कपड़े बदल रहे हैं , बिहार में जनता परिवार के नाम पर जो कुछ हुआ  वो इतना सिंथेटिक दिखा कि उसके आगे 'पॉलिएस्टर' के कपड़े की कृत्रिमता भी कम मॉडिफाइड लगे । सांप्रदायिकतावाद के खिलाफ़ कुर्बानी ज़रुरी है....सही है बिल्कुल , कुर्बानी न हो गई मोबाइल प्रोवाइडर कंपनी की वो एड हो गई जिसमें वो गाना चलता है ..... हर एक फ्रेंड जरुरी होता है ,  लालू यादव जानते हैं कि इस वक्त नीतीश के लिए वो नहीं, उनके लिए नीतीश कुमार बेहद ज़रुरी हैं । यानि लालू यादव तो एकला चलो का सोच भी नहीं सकते ।

नीतीश को नेता मानने के अलावा कोई चारा है ही नहीं,  खुद लड़ सकते नहीं,  पत्नी और बच्चों पर अब दांव खेलने का मतलब जगहंसाई के अलावा कुछ है नहीं तो करते क्या.... नीतीश और लालू के बीच समझौता होने से पहले पावरप्ले की जो  नौटंकी कुछ दिन चलती रही उसने बिहार के दोनों खांटी राजनेताओं के बीच 'शुद्ध देसी ब्रोमांस' के ऐसे  नज़ारे दिखाए  जिसके बाद इनकी दोस्ती के लंबे चलने पर शुबहा तो खड़ा हो ही जाता है , क्योंकि रोमांस के बाद दोस्ती तो कुदरत के नियमों के ही खिलाफ़ है ।  कांग्रेस आरजेडी को भाव दे नहीं रहा , तो लालू अब करें क्या नीतीश के आगे सिर  झुकाने के अलावा फिलहाल कोई रास्ता नहीं दिखता ।

सिचुएशन कुछ ऐसी है जिसमें दोनों अब 'फ्रेनेमी' बन गए हैं, 'फ्रेनेमी बोले तो रिश्ते के बीच एक महीन सी लाईन है जहां एक तरफ फ्रेंडशिप तो दूसरी ओर 'एनमिटी' की दीवार । अब बिहार चुनाव तक तो नीतीश और लालू को  'फ्रेनेमी ज़ोन' में ही रहना पड़ेगा


समाजवादियों के इकट्ठे होने का राग जिस तानपुरे से छेड़ा गया वो  कब का भोथरा हो गया है , इसलिए हम एक हैं का राग इतना बेसुरा है कि कान में दर्द ही होने लग जाए । शरद यादव, मुलायम जैसे साइड कैरेक्टर्स की मौजूदगी में  लालू-नीतीश स्टारर  बिहार लवस्टोरी 2015 का अंत कैसे होगा इसका अंदाज़ा भी लगाना बेकार है , ये अलग बात है कि इस सबने बिहार चुनाव की ऐसी पटकथा लिख दी है जिसमें सब तरह के फॉर्मूला मसालों की गंध अभी से दर्शको यानि वोटरों को आने लगी है ।

चुनौती वही है क्या इस सब सियासी नाटक के बीच बिहार का वोटर   इस सतही मनोरंजन का हिस्सा बनने के लिए फिर से फ्रंट सीट की टिकट लेगा या फिर कुछ फैसला सोच समझकर भी लिया जाएगा । लेकिन लोग करें भी तो क्या विकल्प है भी नहीं...डेविड धवन मसाला नहीं तो फिर रोहित शेट्टी का एक्शन ...च्वाइस बिहार की जनता की है ।

बुधवार, 10 जून 2015

एक शुरुआत, एक कोशिश जारी रहेगी....

मन का लैंडस्केप (Man Ka Landscape) जैसे मन न हुआ कोई तस्वीर हो गई , सही बात है मन में भी तो कई
तरह के चित्र विचारों और भावनाओं की शक्ल में उमड़ते ही रहते हैं हर वक्त ....बस उन्हीं को शब्दों में
उतारने की कोशिश है ।