टीवी पर एक विज्ञापन आप सभी ने देखा होगा । जिसमें एक लड़का अपनी सहकर्मी से कहता है-हम कमाएंगे कब और अच्छा काम करेंगे कम । मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर कंपनी
के विज्ञापन में तो इंटरनेट फोन में ट्रांसफर कर अच्छे काम की इतिश्री कर ली जाती है । लेकिन आम तौर पर हम सोचते हैं कि जब तक जेब में पैसे नहीं होंगे तो कैसे समाज के
लिए कुछ कर सकते हैं । शायद यही वजह है कि कई लोग समाज के लिए अपना फर्ज निभाना चाहते हैं लेकिन दुनियावी सोच आड़े आ जाती है । सोचते हैं अभी ये जोड़ लें
अभी ये कर लें फिर कुछ अच्छा काम करेंगे । लेकिन राजस्थान के एक छोटे से गांव के एक शख्स ने जो किया उसने इस दुनियादारी की संकीर्ण गली में एक छोटी सी
लेकिन उजियारी खिड़की खोली है। बात हो रही है जयपुर से 70 किमी दूर शाहपुरा में रहने वाले हनुमान सहाय की । इनकी रोज़ी रोटी एक छोटी सी दुकान से चलती है जहां ये
सूखी चायपत्ती बेच गुज़ारा करते हैं । इस साधारण से शख्स ने ऐसा कुछ किया जिसे न सरकार न प्रशासन कोई नहीं कर पाया । इन्होंने गांव के लिए एक सरकारी अस्पताल बनवाया है
अपने बूते । इसके लिए इन्हें अपना घर तक बेचना पड़ा और 1 करोड़ इकट्ठा कर एक 27 बेड का अस्पताल बनवा डाला । लेकिन एक साधारण सी गुज़र बसर
करने वाले इस शख्स ने भला ऐसा क्यों किया । कहानी छोटी सी है और अमूमन हर शख्स का कभी न कभी ऐसे हालातों से पाला पड़ता है जब आपकी आँखों
के सामने कुछ ऐसा घट जाता है जो न सिर्फ मन पर बल्कि दिमाग पर भी चोट करता है । रेडलाइट सिग्नल पर भीख मांगते बच्चे, कड़ाके की ठंड में भी फ्लाइओवर , फुटपाथों
पर रात काटती मजबूर ज़िंदगियां।ये कुछ ऐसी सच्चाई है जो एकदम से आंखों के सामने आ जाती है, दिल में कसक पैदा करती हैं । चेतना कह उठती है कि इन
ज़िंदगियों को जीने लायक बनाने के लिए कुछ तो करना चाहिए । लेकिन अकसर ऐसी इच्छाएं सिग्नल पार करने के बाद रोज़ाना का जीवन जीने की जद्दोजहद में कही दब जाती हैं । गुम हो जाती
हैं । लेकिन कुछ लोग हैं जो ऐसे वाक्यों को भुला नहीं पाते और वहीं से शुरु होती है कुछ अच्छा कर गुज़रने की पहली सीढ़ी । हनुमान सहाय अपने पिता से मिलने गांव आए
वहां एक महिला को प्रसव पीड़ा हुई । दिक्कत ये कि आस पास कोई अस्पताल था ही नहीं । काफी देर ये महिला इसी तरह तड़पती रही और किसी तरह दाई की मदद से
घर में ही बच्चे ने जन्म लिया । हनुमान वहां से अपने घर आ गए लेकिन उस महिला की मजबूरी को वो भुला नहीं पाए तय किया कि वहां अस्पताल बनाएंगे. कैसे करेंगे उन्हें
नहीं मालूम था लेकिन इतना ज़रुर पता था कि अस्पताल तो बनाना है । रास्ते में दिक्कत आई, पैसा बड़ी समस्या था ,जिसके लिए उन्होने घर तक बेचा लेकिन आज उनका सपना पूरा हो गया है ।
अस्पताल अपनी जगह पर हैं । वहां डॉक्टर और नर्स भी सेंक्शन हो गए हैं ।
हममे से अधिकतर लोग समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं,लेकिन वो क्या फर्क है जो हनुमान सहाय को बाकी लोगों से अलग बनाता है ? क्यों वो ऐसा कुछ कर जाते
हैं जिसके बारे में बाकी सोचते ही रह जाते हैं । दरअसल वो देखते हैं । जी हां देखने का मतलब सिर्फ देखना नहीं,बल्कि उस दर्द को ,उस मजबूरी को समझना भी है जो
कुछ लोगों के लिए हालातों की वजह रोज़ाना की सच्चाई है । हनुमान सहाय जैसे लोग देखते हैं और इस सच्चाई से आंखें नहीं फेरते । जैसे अधिकतर लोग सिग्नल पार करने के बाद कर लेते हैं
के विज्ञापन में तो इंटरनेट फोन में ट्रांसफर कर अच्छे काम की इतिश्री कर ली जाती है । लेकिन आम तौर पर हम सोचते हैं कि जब तक जेब में पैसे नहीं होंगे तो कैसे समाज के
लिए कुछ कर सकते हैं । शायद यही वजह है कि कई लोग समाज के लिए अपना फर्ज निभाना चाहते हैं लेकिन दुनियावी सोच आड़े आ जाती है । सोचते हैं अभी ये जोड़ लें
अभी ये कर लें फिर कुछ अच्छा काम करेंगे । लेकिन राजस्थान के एक छोटे से गांव के एक शख्स ने जो किया उसने इस दुनियादारी की संकीर्ण गली में एक छोटी सी
लेकिन उजियारी खिड़की खोली है। बात हो रही है जयपुर से 70 किमी दूर शाहपुरा में रहने वाले हनुमान सहाय की । इनकी रोज़ी रोटी एक छोटी सी दुकान से चलती है जहां ये
सूखी चायपत्ती बेच गुज़ारा करते हैं । इस साधारण से शख्स ने ऐसा कुछ किया जिसे न सरकार न प्रशासन कोई नहीं कर पाया । इन्होंने गांव के लिए एक सरकारी अस्पताल बनवाया है
अपने बूते । इसके लिए इन्हें अपना घर तक बेचना पड़ा और 1 करोड़ इकट्ठा कर एक 27 बेड का अस्पताल बनवा डाला । लेकिन एक साधारण सी गुज़र बसर
करने वाले इस शख्स ने भला ऐसा क्यों किया । कहानी छोटी सी है और अमूमन हर शख्स का कभी न कभी ऐसे हालातों से पाला पड़ता है जब आपकी आँखों
के सामने कुछ ऐसा घट जाता है जो न सिर्फ मन पर बल्कि दिमाग पर भी चोट करता है । रेडलाइट सिग्नल पर भीख मांगते बच्चे, कड़ाके की ठंड में भी फ्लाइओवर , फुटपाथों
पर रात काटती मजबूर ज़िंदगियां।ये कुछ ऐसी सच्चाई है जो एकदम से आंखों के सामने आ जाती है, दिल में कसक पैदा करती हैं । चेतना कह उठती है कि इन
ज़िंदगियों को जीने लायक बनाने के लिए कुछ तो करना चाहिए । लेकिन अकसर ऐसी इच्छाएं सिग्नल पार करने के बाद रोज़ाना का जीवन जीने की जद्दोजहद में कही दब जाती हैं । गुम हो जाती
हैं । लेकिन कुछ लोग हैं जो ऐसे वाक्यों को भुला नहीं पाते और वहीं से शुरु होती है कुछ अच्छा कर गुज़रने की पहली सीढ़ी । हनुमान सहाय अपने पिता से मिलने गांव आए
वहां एक महिला को प्रसव पीड़ा हुई । दिक्कत ये कि आस पास कोई अस्पताल था ही नहीं । काफी देर ये महिला इसी तरह तड़पती रही और किसी तरह दाई की मदद से
घर में ही बच्चे ने जन्म लिया । हनुमान वहां से अपने घर आ गए लेकिन उस महिला की मजबूरी को वो भुला नहीं पाए तय किया कि वहां अस्पताल बनाएंगे. कैसे करेंगे उन्हें
नहीं मालूम था लेकिन इतना ज़रुर पता था कि अस्पताल तो बनाना है । रास्ते में दिक्कत आई, पैसा बड़ी समस्या था ,जिसके लिए उन्होने घर तक बेचा लेकिन आज उनका सपना पूरा हो गया है ।
अस्पताल अपनी जगह पर हैं । वहां डॉक्टर और नर्स भी सेंक्शन हो गए हैं ।
हममे से अधिकतर लोग समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं,लेकिन वो क्या फर्क है जो हनुमान सहाय को बाकी लोगों से अलग बनाता है ? क्यों वो ऐसा कुछ कर जाते
हैं जिसके बारे में बाकी सोचते ही रह जाते हैं । दरअसल वो देखते हैं । जी हां देखने का मतलब सिर्फ देखना नहीं,बल्कि उस दर्द को ,उस मजबूरी को समझना भी है जो
कुछ लोगों के लिए हालातों की वजह रोज़ाना की सच्चाई है । हनुमान सहाय जैसे लोग देखते हैं और इस सच्चाई से आंखें नहीं फेरते । जैसे अधिकतर लोग सिग्नल पार करने के बाद कर लेते हैं