शुक्रवार, 17 जून 2016

थैंक्यू और प्लीज़....

दुनिया जिस दौर में होती है, उसमें अपनी ही रवानगी और रफ्तार से चलती है.....आज तकनीक और मशीन का युग है ...भावनाएं और अभिव्यक्तियां तक डिजिटल हो गईं है। सबको पता है
इंटरनेट पर अब सब कुछ मिलता है...बस टाइप करना है और सूचनाओं की एक लंबी चौड़ी कतार आपके सामने तैयार ...अरबों लोग दुनिया के हर कोने से हर पल ना जाने क्या- क्या इंटरनेट पर खोज
रहे हैं । सालों से , सांस लेने की ही रफ्तार से हो रहे इस मशीनी काम में एक दिन मानवीय स्पर्श किसी ठंडी हवा के झोंके की तरह आया...और मशीनी तरीके से चल रहे सिस्टम को प्यार से सहला गया ।
गूगल के सर्च इंजन पर एक रिक्वेस्ट आई...जो रोज़मर्रा की रिक्वेस्ट से अलग थी....जानकारी मांगने वाले सर्च की एवज में प्लीज़ और थैंक्यू कहा......ये फरियाद थी लंदन में रहने वाली 86 साल की एस्वर्थ की...
  एस्वर्थ ने सर्च इंजन में  लिखा कि प्लीज क्या आप रोमन न्यूमरल्स mcmxcviii के बारे में बता सकते हैं, थैंक्यू । एस्वर्थ को अपने सवाल का जवाब तो मिला साथ ही एक संदेश
गूगल की तरफ से उनके लिए आया कि लाखों-करोड़ों की खोज में आप का सवाल खुशी देता है... लेकिन इसके लिए आप को थैंक्यू कहने की जरुरत नहीं है।
ये पूरी कहानी तब सामने आई जब एस्वर्थ के नाती अपनी नानी के इस मासूम से अंदाज़ को सोशल मीडिया पर डाल दिया जिसके बाद मासूमियत का ये अफसाना जगजाहिर हो गया । एस्वर्थ उम्र के इस पड़ाव
में अपना ज्यादातर वक्त टीवी देखते बिताती हैं । ब्रिटेन में सीरियल्स में दिन, महीने और वर्ष की जानकारी देने के लिए रोमन नंबर का इस्तेमाल किया जाता है। एस्वर्थ ने किसी प्रोग्राम को देखा था और उन रोमन नंबर्स को नहीं समझ पायी।
 लिहाजा उन्होंने गूगल सर्च इंजन में सवाल टाइप कर जवाब जानना चाहती थीं।


खलील जिब्रान ने कहा है कि जो कुछ तुम्हारे पास है,उसे एक न एक दिन तो देना ही पड़ेगा  ,तो फिर आज ही दे दो ..यह बात कृतज्ञता के भाव पर सही बैठती है...हमारी सदी ने बहुत कुछ हासिल किया....दुनिया का एक छोर दूसरे छोर से जुड़ा
हुआ है ....लेकिन अगर कुछ खो गया है तो वो कृतज्ञता है...ग्रैटीट्यूड खो गया है ...जीवन की सहज लय बिगड़ गयी है...  उतावल ने उसे असहज बना दिया । इसीलिए हमारी शैली मशीनी हो गई .. प्रतिक्रियावादी हो गई है ...
एस्वर्थ बुजुर्ग हैं वो जिस जमाने से आती हैं वहां कृतज्ञता सिखाई नहीं जाती थी....वो जीवन में सहजता से ऐसे ही साथ चलती है जैसे सांसों की डोर...आज सब कुछ हासिल करने...सब कुछ अनुभव की जल्दबाज़ी ने जीवन से उसका सत्व कहीं छीन लिया है...
इसीलिए एस्वर्थ की मासूमियत  खबर बनती है..क्योंकि जीवन का ये कोमल भाव ...जिसे भी छूता है उसे ठहरने और उसे महसूस करने के लिए विवश करता है...बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद का ये दौर अपनी संवेदनहीनता और अमानवीय
चेहरे के लिए बदनाम है ... लेकिन इसी दौर में अगर महज एक सर्च रिक्वेस्ट को लेकर इतनी बात की जाती है तो समझ जाइए....कोई भी युग हो...कोई भी वाद हो...मानवता के कोमल भावों के तंतु कभी ढीले नहीं पड़ सकते ...वो रोज
की आपाधापी में मन की परतों में कहीं दब ज़रुर गए हैं लेकिन मौका मिलने पर ऐसी ही खबरो के जरिए सामने आते हैं...आते रहेंगे...जरुरत है ...इन सहज भावों को और खाद पानी देने की ..मानवीय ऊर्जा की गर्मी देने की ...ठहरने की...ठहर
 कर सांस लेने की ..जीवन को अपने अर्द गिर्द महसूस करने की ...और इस धरती का एक जीवंत भाग बनने की... फिर एस्वर्थ की रिक्वेस्ट जैसी खबरें...खबरें नहीं बनेंगी ....चौकाएंगी नहीं।

रविवार, 12 जून 2016

खामोश चीख का शोर




जिंदगी का ऐसे किसी मोड़ से निकलना,जहां से ज़िंदगी के कई साल न सिर्फ मुड़ न जाएं..बल्कि हाथ से निकल जाएं ...फिसल जाएं ...और आप स्तब्ध खड़े रह जाएं ..चुपचाप...। सब कुछ ऐसे हो कि किसी से ना गिला कर पायें और न ही शिकायत ।  ऐसा एक शख्स के साथ हुआ ।

23 साल वो सलाखों के पीछे रहा । एक दिन उसे कहा गया कि तुम बेकसूर हो । 20 साल का वो नौजवान एक पल में 43 साल का अधेड़ हो गया । जिंदगी के दिन ,महीने ,साल कहीं फास्टफॉर्वर्ड में आगे निकल गए और वो कहीं पीछे रह गया । ज़िंदगी की छत से मानो जैसे ही वो उन सालों को नीचे देखने की कोशिश करता उसे अंधेरा ही दिखता । निसार उद दीन अहमद को 23 साल पहले बाबरी मस्जिद विध्वंस की पहली बरसी पर हुए धमाको के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था । फार्मेसी का ये छात्र 23 साल तक जेल में रहा लेकिन पुलिस को उसके खिलाफ़ सबूत नहीं मिले

अब जरा निसार को सुनिए -----आज मैं 43 साल का हूं । उस वक्त मेरी छोटी बहन 12 साल की थी जिसकी अब शादी हो चुकी है...उसकी बेटी 12 साल की है मेरी भतीजी.. एक साल की की थी लेकिन अब वो भी शादीशुदा है । मेरी ज़िंदगी में एक पूरी पीढ़ी गायब हो चुकी है । ऐसा क्यों हुआ ? कब हुआ मैं नहीं जानता । बस ये जानता हूं कि मेरे लिए ज़िंदगी खत्म हो चुकी है । मैं निसार खान हूं और एक ज़िंदा लाश हूं ।

निसार की कहानी पढ़ सुन कर ये व्यक्त करना मुश्किल है कि कि कैसा महसूस होता है । गुस्सा,खीज,दुख या इनसे उपजी एक खामोशी भरी बेचैनी । एक शख्स कहता है कि उसकी ज़िंदगी के 23 साल व्यवस्था की भेंट चढ़ गए...और इस बात का गवाह हर कोई था । समाज, कानून सब । निसार सही कहता है जब वो कहता है कि
वो समझ नहीं पा रहा कि वो खुद एक सच्चाई है या अफसाना । जिंदगी कोई गाने की डीवीडी तो नहीं जिसे रिवाइंड कर वो मनपसंद गाना सुन ले ...क्या कोई इस शख्स के उन जवान लम्हों को वापस ला सकता है जिनमें ज़िंदगी की खूबसूरती महसूस करने की ख्वाहिश कभी रही होगी । ये सही है कि वो खुशकिस्मत है क्योंकि कई लोगों को जीते जी इंसाफ़ कभी हासिल नहीं हो पाता..23 साल बाद ही सही वो जेल की सलाखों से बाहर है और खुली हवा में सांस ले रहा है । सवाल ये है कि क्या ये सही इंसाफ़ है कि किसी
से उसकी संभावनाओं से भरा जीवन छीन लीजिए कहिए लीजिए अब आप आज़ाद हैं...जियो अपनी ज़िंदगी  । इसीलिए  निसार की खामोश आंखों की ये चीख
कि मैं एक ज़िंदा लाश हूं ...कान फाड़ देता है ।