गुरुवार, 27 अगस्त 2015

कोई पूछने वाला क्यों नहीं ?


कुछ समय पहले आमिर खान और करीना कपूर की एक फिल्म आई थी तलाश । फिल्म में एक कॉल गर्ल सड़क दुर्घटना का शिकार हो जाती है और मर जाती है । कुछ सालों बाद अजीबोगरीब  एक्सिडेंट
के अनसुलझे केस सुलझाने के दौरान एक पुलिस वाले की मुलाकात  एक लड़की से होती है...जिससे उसे अपने केस के साथ-साथ उस कॉल गर्ल की मौत की असलियत भी पता चलती है । वो लड़की पुलिसवाले
बने आमिर खान से कहती है । ......................क्या साहेब इतना बड़ा शहर है मुंबई, लेकिन फिर भी एक लड़की एक रात गायब हो जाती है और कोई पूछने वाला भी नहीं कि वो कहां गई ?

शीना हत्याकांड में ये सवाल कितना मौजूं है ये इसी बात से पता चलता है कि 3 साल पहले गायब हुई एक लड़की की कितनी परवाह इस दुनिया को थी ....वो साफ़ हो गया । सबसे ज्यादा दुख इसी बात का है कि
उसके गायब होने के बाद उसकी गुमशुदगी को लेकर जो जवाब आ रहे हैं वो सदमे में डालने वाले हैं ।

 यूं शीना इस दुनिया में कोई अकेली नहीं थी । उसके नाना नानी, भाई ,सौतेला पिता,ब्वॉफ्रेंड, सहयोगी,दोस्त सब लोग थे । लेकिन ये कोई कैसे मान ले कि इनमें से किसी को नहीं पता कि वो लड़की एकाएक कहां चली गई
,और  उसे तलाशने की कोई कोशिश क्यों नहीं हुई  ?  उसके भाई मिखाइल ने कहा कि उसकी मां ने उसे बताया कि  वो अमेरिका में है पढ़ रही है ,यही जवाब उसकी सौतेली बहन विधि भी देती है ।
 2007 के बाद कई साल वो पीटर मुखर्जी के घर में रही लेकिन आज वो कहते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि शीना कहां है ?  सवाल ये कि हो सकता है कि करीबी लोगों के दावों पर अब भरोसा नहीं किया जा सकता
क्योंकि गिरफ्तारी का फंदा जिस तरह से सभी पर कस रहा है उस को लेकर इस बात पर यकीन करना मुश्किल है कि  वो कितना सच और कितना झूठ बोल रहे हैं ।


लेकिन असल सवाल उस दुनिया से है जिसे हमें अपने आस-पास नज़रों में तो पाते हैं...लेकिन शायद वो आभासी ही है । परिवार के लोगों के अलावा हर शख्स की ज़िंदगी में बाहर की लोगों ,जान
पहचान वालों , सहकर्मियों की भी एक मौजूदगी अप्रत्यक्ष रुप से होती ही है । कोई बिरला ही अंतर्मुखी होगा जिसका कोई दोस्त या संगी ,साथी न हो । शीना की ज़िंदगी में भी ऐसे लोग थे ।

....क्या वो दोस्त....रिश्तेदार .....सहकर्मी जो शीना को थोड़ा बहुत भी जानते थे कोशिश नहीं कर सकते थे जानने  कि आखिरकार शीना गई तो गई कहां । ये कैसे संभव है कि कोई शख्स
रातोंरात ये फैसला ले ले कि उसे अगली सुबह विदेश जाकर पढ़ाई करनी है और फिर उसकी कोई खोज खबर न मिले ...क्या ऐसे में किसी को शक नहीं होगा.....
क्या किसी भी आम आदमी के ज़हन में ये सवाल नहीं आएंगे कि वो कहां गई । शीना की जनरेशन के लोग सोशल मीडिया पर बहुत एक्टिव रहते हैं ....लेकिन कहा जा रहा है कि  उसकी फेसबुक पर भी काफी समय से कोई पोस्ट नहीं थी ...फिर क्यों नहीं किसी के जहन में आया कि पोस्ट क्यों नहीं की गई ।

हालांकि अब शीना के कुछ दोस्त सामने आए और उन्होंने माना कि उस वक्त उनके ज़हन में भी इस तरह के सवाल आए थे...लेकिन तो वो क्या मजबूरी है जिसके चलते
वो खामोश रह गए । दरअसल इसमें दोष शीना के दोस्तों का नहीं....उस एकाकीपन का है जिसे व्यक्तिगत स्वच्छंदता के नाम पल इस समाज ने सहज ही खुद पर ओढ़ लिया है ।
जहां लोग परवाह तो करते हैं लेकिन एक दायरे में ही है । हाल-चाल भी पूछते हैं । सामने वाला भी झूठा जवाब देता है कि अच्छे हैं । जब संवाद ऐसे सिंथेटिक हो तो आत्मीयता और परवाह कहां से होगी ।


तो क्या प्राइवेसी के नाम पर हमने अपने इर्द गिर्द एक ऐसा दायरा बना लिया है,जिसके आर-पार न तो हम जाना चाहते हैं ना दूसरों की करीब आने की इजाज़त देते हैं । सामूहिकता,सहभागिता
और सहजीवन क्या कहीं पीछे छूट गए हैं । सोशल मीडिया पर दिखने वाले लाइक्स और शेयर असल ज़िंदगी के एकाकीपन को और उघाड़ रहे हैं । तो क्या वाकई शीना इस आभासी दुनिया में
अकेली ही थी ? शायद

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

उफ़ मरजानियों अभी भी वहीं की वहीं हो



क्या मैं दूसरे कैदियों को देख सकती हूं ।....(  इस्मत बोलीं)
पुलिसवालों ने लाइन में लगे दूसरे कैदियों की तरफ इशारा कर कहा.......यही हैं बाकी लोग..... 
इन लोगों ने क्या किया है ?... इस्मत ने फिर पूछा
पुलिस वाले ने जवाब दिया, वही पॉकेटमारी ,चोरी, लूटपाट
इस्मत हंसी और कहा......ये कोई बात है मर्डर किए होते तो ज्यादा मज़े की बात थी 


1940 के दशक में कहानी लिहाफ़ के लिए अश्लीलता के मुकदमे के लिए बेल लेने के दौरा इस्मत चुगताई की ऐसी बेफिक्री देख पुलिसवाले चौंक गए थे । परंपरागत मुस्लिम समाज की एक महिला से
ऐसी बातें उन्होंने शायद पहली कभी नहीं सुनी । ठीक उसी तरह जिस तरह इस दुनिया ने भी इस्मत जैसे शख्सियत को उससे पहले देखा नहीं था । ऊर्दू अदब में इस्मत चुगताई एक ऐसे बेबाक बेलौस तेवर का नाम है , जिनके लिखे किस्से कहानियों के हर लफ्ज, हर वाक्य ने समाज को आईना दिखाया ।

कहा जाता है कि आज के ही दिन 1915 में उनका जन्म हुआ था , हालांकि तारीख को लेकर कोई साफ तथ्य नहीं मिलते हैं, लेकिन माना यही जाता है कि अगस्त के इसी पखवाड़े में उनका जन्मदिन पड़ता है ।
अब इस बात को चाहे एक सदी भले ही बीत गई हो, लेकिन कई सदियां हैं जो रवायतों  की घड़ी की सुईयों में अटक कर रह गई हैं । आज के ही अखबारों की सुर्खियां कह रही हैं कि आज भी 53.2 फीसदी मुस्लिम महिलाएं घेरलू हिंसा का शिकार हैं । तकरीबन 65.9 फीसदी महिलाओं का तलाक जुबानी हुआ है, जबकि 78 फीसदी का एकतरफा ही । जिन 4,710 महिलाओं की राय पर ये सर्वे तैयार किया गया है उनमें से 92 फीसदी मानती हैं कि जुबानी तलाक की रवायत खत्म होनी चाहिए ।

ऐसे में जरा सोचें कि अगर अपने किस्से कहानियों के किसी किरदार की शक्ल में  इस्मत आपा  सामने आ जाएं तो क्या होगा ....यकीनन वो कहेंगीं...अरे मरजानियों आज भी वहीं की वहीं हो, बहुत संभव है कि वो अपनी  मशहूर कहानी मुगल बच्चा  का जिक्र कर दें ... .जिसमें उन्होंने एक औरत का दर्द बेहद खूबसूरती से दिखाने की कोशिश की है...दिखाया है किस तरह एक नवाब अपनी पत्नी को सिर्फ इसलिए छोड़ देता है क्योंकि वो उससे कहीं ज्यादा खूबसूरत थीं, बस इस वजह से उस औरत ने ताउम्र वैधव्य जैसा जीवन बिताया ।


कहने को तो एक सदी बीत गई और पिछले कुछ सालों में तकनीक ने बेहद तरक्की की है, अब फेसबुक है, ईमेल है , वट्सऐप है, जहां संदेश पढ़े और शेयर किए जातें हैं, लेकिन हैरानी इस बात की है कि इस तकनीक ने जहां दुनियाजहान की दिक्कतें हल की हैं तो महिलाओं की मुश्किलें बढ़ाई ही हैं, अब मियां सात समंदर पार बैठकर स्काईप पर ही तलाक कह देता है । ये लो अब कर लो कुछ भी । जिस गैरबराबरी की दुनिया में इस्मत ने आंखें खोली थी । उनके आंखें बंद करने के बाद भी औरतों के लिए दुनिया का दोतरफा रवैया तिन भर भी बदला नहीं है ,बल्कि अपनी मर्ज़ी थोपना और आसान ही हो गया है ।  ऐसे में ये बहुत मौजूं है कि इस्मत अपने जाने पहचाने अंदाज़ में खड़ी हों और आधी आबादी को एक बार याद दिलाएं कि देखो ज्यादा कुछ मत करो । बस एक दफा मेरी ज़िंदगी की ओर ही देख लो ।

''देखो कि मैंने किस तरह अपनी जिंदगी जी है । जब मैं 13 साल की थी...तब से ही  घर में कोशिश गई कि मैं सीना- पिरोना सीखूं ,लड़कियों वाले काम सीखूं ... तब से लेकर मरने तक मैंने सिर्फ रवायतें ही तोड़ी और अपनी बनाई लकीर पर ही चलीं ।  उफ मेरे मिजाज में बला की जिद थी । चाहे फिर वो मां-बाप की ओर से जबरन शादी कराए जाने को लेकर मुखालफत हो या फिर पढाई- लिखाई को लेकर उस वक्त की दकियानुसी सोच का विरोध । हद तो तब थी जब मैंने अपने अब्बा हुज़ूर को अल्टीमेटम दे दिया था कि अगर आगे पढ़ने नहीं देंगे तो मुसलमान से क्रिश्चियन बन जाऊंगी । याद करो जब मैंने अलीगढ़ के उस मुल्ला के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद की थी जिसने शहर के पहले गर्ल्स कॉलेज को वेश्यावृत्ति का अड्डा करार दिया था । तब मैं उस मुल्ला के खिलाफ़ खिलाफ कोर्ट तक गई थी । 

1942 में मैंने लिहाफ़ लिखी, 1944 में लाहौर में इसी कहानी पर अश्लीलता का मुकदमा चला । मुझ पर दबाव डाला गया कि मैं माफी मांग कर बात खत्म करूं लेकिन मैंने लड़ना बेहतर
समझा और मुकदमा लड़ा । हर बार अदालत में जाते समय मुझ पर फब्तियां कसीं जातीं परंतु मैंने केस जीत लिया ।''

तो ये तो तब की बात रही जब इस्मत आपा किस्से कहानियों के किरदारों से निकल कर सामने आ जाती हैं.. अकस्मात ही । लेकिन उनके समकालीन और उतने ही विवादास्पद लेखक मंटो ने भी अपने संस्मरण में
इस्मत के बारे में बेहद रोचक किस्सा लिखा है । दरअसल मंटो और इस्मत दोनों को ही अश्लीलता के लिए लाहौर कोर्ट से समन मिला था और दोनों साथ ही लाहौर गए थे । मुंबई वापस आने पर एक शख्स ने इस्मत से पूछ डाला 
 'आप लाहौर क्यों गईं थीं....। इस पर इस्मत ने मुस्कुरा कर कहा ...जूते खरीदने, सुना है अच्छे मिलते हैं वहां ।


तो बात सो सही है......लड़कियों कुछ ज्यादा मत करो.....इस्मत की ज़िंदगी की ही ओर देख लो ।

सोमवार, 3 अगस्त 2015

आँखों देखी

क्या कभी उस सच को माना है जो खुद की आंखों से देखा हो...महसूस किया हो । कितने लोग ज़िंदगी में खुद का सच देख पाते हैं...कितने लोग उस सच को ढूंढ पाते हैं जो सामने दिखता हो....लेकिन हम उसे देखना नहीं चाहते । क्या उस सच को सच्चाई मान लेना झूठ नहीं जो हम दूसरों के दिखाए जाने पर देखते हैं । फिल्म आंखों देखी ऐसे ही सवालों से दिल दिमाग झकझोर देती है । फिल्म आंखों देखी एक चलचित्र नहीं बल्कि जीवन अनुभव है
 जो एक शख्स अपने जीवनकाल के उत्तरार्ध के एक हिस्से में महसूस करता है । एकाएक वो फैसला करता है कि वो अब से उसी चीज़ को सच मानेगा जो उसने खुद आंखों से देखी हो । बचपन से ही काला-सफेद , झूठ सच , सही गलत,वैध-अवैध, जाने कितनी ही खांचों में ढाली गई नज़र को सच्चाई की ईमानदार कोशिश मिलती है तो पहले पहलहमारे आस पास के लोग,परिवार और दोस्त पड़ोसी किस तरह उस नज़र को सामाजिक परिवेश में अनफिट ठहराने पर जुट जाते हैं ये कोई आश्चर्य नही ।
जीवन भर दूसरों के बताए सच को सच मानना , दूसरो के चलाए रास्ते पर चलने , सामाजिक रवायतों के लकीर के फकीर बनना और ताउम्र ऐसे ही जीना और मर जाना , फिल्म आँखों देखी वाकई जीवन के एक दूसरे सच के बारे में बताती है ...कि जीवन एक अनुभव यात्रा है । एक ऐसी यात्रा जिसमें कई पड़ाव आते हैं, बचपन,पढ़ाई लिखाई ,नौकरी शादी, बच्चे, और इन सब के बीच पल-पल बढ़ता, पल-पल खुद को जीता जीवन । लेकिन कितने लोग है जो इस दौरान एक ऐसी नज़र रख पाते हैं जिस पर अमीर गरीब, सफेद-काला और तमाम दूसरे फर्क का मुलम्मा नहीं चढ़ता । वक्त के साथ-साथ नज़र में पूर्वाग्रह आते ही चले जाते हैं जैसे लोहे पर जंग लगता है वैसे जीवन को लेकर नज़रिया भी इन्ही पूर्वाग्रहों से कुंद हो जाता है ।

फिल्म बताती है कि एक व्यक्ति का जीवन उसका अपना जीवन है  ,हालांकि ये नज़रिया व्यक्तिवादी नहीं,लेकिन कुछ-कुछ वैरागी या माया मोह से कुछ हद तक मुक्त प्रवृति की ओर इंगित करता है । संगी साथी और परिवार जन होने के बावजूद जीवन के हर पल का साक्षी उसका ऐसा एकाकी जीवन है जिसमें वह सब देख रहा है । सब  महसूस कर रहा है । हंस  रहा है, रो रहा है , गा रहा है नाच रहा ,लड- झगड़ भी रहा है,लेकिन इन सब को एक सापेक्षिक नज़रिए से देखने की कोशिश भी कर रहा है । जीवन को लेकर नज़रिए को आलोचना की कसौटी पर कस रहा है । उसने अपने लिए वर्जनाएं तय नहीं की हैं और वो हर तरह के अनुभव ले देखना चाहता है कि कौन सा अनुभव किस तरह का है , वो इसके लिए किसी और के तर्को और विचारों का मोहताज नहीं ।

इस फिल्म को देखा नहीं जा सकता । सिर्फ महसूस किया जा सकता है । और उसके लिए भी दर्शक को दिल और दिमाग को उलट-पलट कर खाली करना होता है , तभी वो इस अनुभव के लिए कोई जगह बना पाएगा । फिल्म के दर्शक को एक ऐसे अनुभव रुपी सफर पर निकलना होता है जहां के नुक्कड,चौराहें पर लोग तो दिखते हैं लेकिन वो सब आभासी है, इस सफर का राही नितांत अकेला है । राह में दूसरे मुसाफिर भी हैं लेकिन उसकी नज़र,उसके अनुभव उसके अपने हैं जाहिर है उसकी मंजिल भी जुदा होगी,वो दूसरो से अलहदा होगी ,लेकिन उसकी अपनी होगी । ये फिल्म नहीं जीवन दर्शन है ।