सोमवार, 3 अगस्त 2015

आँखों देखी

क्या कभी उस सच को माना है जो खुद की आंखों से देखा हो...महसूस किया हो । कितने लोग ज़िंदगी में खुद का सच देख पाते हैं...कितने लोग उस सच को ढूंढ पाते हैं जो सामने दिखता हो....लेकिन हम उसे देखना नहीं चाहते । क्या उस सच को सच्चाई मान लेना झूठ नहीं जो हम दूसरों के दिखाए जाने पर देखते हैं । फिल्म आंखों देखी ऐसे ही सवालों से दिल दिमाग झकझोर देती है । फिल्म आंखों देखी एक चलचित्र नहीं बल्कि जीवन अनुभव है
 जो एक शख्स अपने जीवनकाल के उत्तरार्ध के एक हिस्से में महसूस करता है । एकाएक वो फैसला करता है कि वो अब से उसी चीज़ को सच मानेगा जो उसने खुद आंखों से देखी हो । बचपन से ही काला-सफेद , झूठ सच , सही गलत,वैध-अवैध, जाने कितनी ही खांचों में ढाली गई नज़र को सच्चाई की ईमानदार कोशिश मिलती है तो पहले पहलहमारे आस पास के लोग,परिवार और दोस्त पड़ोसी किस तरह उस नज़र को सामाजिक परिवेश में अनफिट ठहराने पर जुट जाते हैं ये कोई आश्चर्य नही ।
जीवन भर दूसरों के बताए सच को सच मानना , दूसरो के चलाए रास्ते पर चलने , सामाजिक रवायतों के लकीर के फकीर बनना और ताउम्र ऐसे ही जीना और मर जाना , फिल्म आँखों देखी वाकई जीवन के एक दूसरे सच के बारे में बताती है ...कि जीवन एक अनुभव यात्रा है । एक ऐसी यात्रा जिसमें कई पड़ाव आते हैं, बचपन,पढ़ाई लिखाई ,नौकरी शादी, बच्चे, और इन सब के बीच पल-पल बढ़ता, पल-पल खुद को जीता जीवन । लेकिन कितने लोग है जो इस दौरान एक ऐसी नज़र रख पाते हैं जिस पर अमीर गरीब, सफेद-काला और तमाम दूसरे फर्क का मुलम्मा नहीं चढ़ता । वक्त के साथ-साथ नज़र में पूर्वाग्रह आते ही चले जाते हैं जैसे लोहे पर जंग लगता है वैसे जीवन को लेकर नज़रिया भी इन्ही पूर्वाग्रहों से कुंद हो जाता है ।

फिल्म बताती है कि एक व्यक्ति का जीवन उसका अपना जीवन है  ,हालांकि ये नज़रिया व्यक्तिवादी नहीं,लेकिन कुछ-कुछ वैरागी या माया मोह से कुछ हद तक मुक्त प्रवृति की ओर इंगित करता है । संगी साथी और परिवार जन होने के बावजूद जीवन के हर पल का साक्षी उसका ऐसा एकाकी जीवन है जिसमें वह सब देख रहा है । सब  महसूस कर रहा है । हंस  रहा है, रो रहा है , गा रहा है नाच रहा ,लड- झगड़ भी रहा है,लेकिन इन सब को एक सापेक्षिक नज़रिए से देखने की कोशिश भी कर रहा है । जीवन को लेकर नज़रिए को आलोचना की कसौटी पर कस रहा है । उसने अपने लिए वर्जनाएं तय नहीं की हैं और वो हर तरह के अनुभव ले देखना चाहता है कि कौन सा अनुभव किस तरह का है , वो इसके लिए किसी और के तर्को और विचारों का मोहताज नहीं ।

इस फिल्म को देखा नहीं जा सकता । सिर्फ महसूस किया जा सकता है । और उसके लिए भी दर्शक को दिल और दिमाग को उलट-पलट कर खाली करना होता है , तभी वो इस अनुभव के लिए कोई जगह बना पाएगा । फिल्म के दर्शक को एक ऐसे अनुभव रुपी सफर पर निकलना होता है जहां के नुक्कड,चौराहें पर लोग तो दिखते हैं लेकिन वो सब आभासी है, इस सफर का राही नितांत अकेला है । राह में दूसरे मुसाफिर भी हैं लेकिन उसकी नज़र,उसके अनुभव उसके अपने हैं जाहिर है उसकी मंजिल भी जुदा होगी,वो दूसरो से अलहदा होगी ,लेकिन उसकी अपनी होगी । ये फिल्म नहीं जीवन दर्शन है ।

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