लाल टीन की छत। निर्मल वर्मा का ऐसा लोक संसार जहां किरदार बाहर की दुनिया के किरदारों से ज्यादा,भीतर के किरदारों से संवाद करते हैं। काया ,लामा,गिन्नी,चाचा,बुआ,मंगतू या वो जो पिछले कॉटेज में रहती है,जो दुनिया से संवाद करती है,लेकिन कॉटेज की चार दीवारी के भीतर ही रहकर।
काया के अन्तर्मन में महज सोचती नहीं,वो संवाद करती है, वो अपनी इस भीतरी दुनिया में विचरण करते हुए ये पाती है कि हर इंसान का अन्तरलोक एक अलग संसार है।वो उस दुनिया से बहुत अलग है जो उसके इर्द गिर्द है। वो गिन्नी के बारे में जब सोचती है तो सोचती है कि बिन्नी अगर होती तो कब क्या कैसे सोचती । किसी ने खूब कहा है कि हर इंसान के भीतर कोई और शख्स रहता है,सोचता है,उठता है,बैठता है,सोता है,नफरत करता है,प्यार करता है। वो इंसान कौन है,कैसा दिखता है,अच्छा है या बुरा है,ये अहम नहीं , बस वो है उसके ना कोई नाम दिया जा सकता है,ना उसकी कोई स्थायी घर है। ये जो हर इंसान के भीतर दूसरा इंसान है। इसका कोई नाम भी नहीं है, वही इंसान असल में उस का सच्चा रुप है।
उपन्यास मे सबसे खूबसूरत जादुई यथार्थ का एक पल तब आता है जब पहाड़ों के बीच ही ्अपनी ज्यादातर जिंदगी बिताने वाली काया एक किसी दिन चाचा के घर से वापस अपने घर आते उन खूबसूरत पहाड़ों को देखती है और सोचती है कि क्या हम वहां भी होते हैं,जहां हम नहीं होते । वो खूबसूरत ऊंचे पहाड़ों के इर्द गिर्द बसे शहर को देख सोचती है कि क्या इंसान अपनी यादों के भूलभूलैया में ऐसे ही मौजूद होता है जैसे ये पहाड़ ,जो सब देखते हैं। वो गवाह हैं,जो हमेशा देखते हैं, झरनों को,पेड़ों को, कारों को ट्रकों को, रिक्शों को । चेहरे पर झुर्रियों को,मन की उथलपुथल को। गृहस्थ लोगों के जीवन की नीरवता को,बच्चों के पैरों की शरारतों को। वो सब देखते हैं। लेकिन ऐसे ही इंसान भी तो सब देखते हैं। वो पहाड़ों के बीच निकली पगडंडी पर ना होकर भी होते हैं। वो उसे अपने भूत और भविष्य दोनों में देखते हैं। वो वहां ना होकर भी होते हैं।