मंगलवार, 28 जुलाई 2015

मसान से गुज़री भावनाओं के सफर की कहानी



फिल्म के बेहद शुरुआती 5-7 मिनट में ही जीवन के अंत की कहानी परदे पर है । वो सच जो सब जानते हैं....यहां एक ऐसे परिवार के ज़रिए बताया जाता है  जिसके जीवन की गाड़ी उस सच को रोज़ाना देखकर , अनुभव कर गुज़र रही है जिसे ज़िंदगी का आखिरी पड़ाव कहा जाता है ... दरअसल श्मशान और उसके इर्द गिर्द बनारस की जिंदगी फिल्म का वो सबसे मज़बूत बिंब है जिसके ज़रिए...सारी कहानियां उन किरदारों के जरिए धीरे-धीरे आँखों के सामने आकर एक दुनियावी जगत रच देते हैं । कहानी की सबसे बड़ी खूबसूरती है उसका सहज बहाव जो गंगा की धारा की ही तरह कई अंगडाईया लिए हुए है.... । दो कहानियां । दोनों प्रेम की कहानियां । एक जहां खत्म होती है ...वहां से दूसरी शुरु होती है । कुछ देर बाद दूसरी भी खत्म होती है ...तीसरी की शुरुआत के लिए । और बीच में चलता है गंगा की धारा जैसे भावनाओं का प्रवाह ..कभी मद्धम..कभी सन्न ठहरा हुआ ।
 ...मसलन गंगा तट में सिक्के के लिए गहरे भीतर गंगा की कोख में कूदने वाले गोताखोर जैसे अंदर अंदर चले जाते हैं वैसे भावनाओं की गहराई दिखाने की कोशिश की गई है । देवी के पश्चाताप की ....दीपक के प्रेम की और  ...दुनियावी संस्कारों में डूबे गृहस्थ संजय मिश्रा की मजबूरी की ।

पूरी फिल्म एक सुंदर कविता लगती है जो दिल से निकली हो और उस पर कोई शाब्दिक श्रृगांर का मुलम्मा न चढ़ाया गया हो....एक ऐसी तस्वीर जिस पर किसी चित्रकार की कूची सहजता से चली हो । प्रेमी युगल के लाल गु्ब्बारे को उड़ाना हो ......। प्रेमिका की उंगली की वो लाल अंगूठी हो .... परपल कलर में लिपटा वो छोटा सा गिफ्ट जिसे कभी खोला नहीं गया या फिर ....श्मशान घाट पर रोज़ ज़िंदगी की सच्चाई को रोज़ देखना लेकिन एक दिन अपनी प्रेमिका की मौत के रुप में  अनुभव करना या फिर फिल्म के अंत में एक नाविक ता नायक नायिका से पूछना संगम तट तक चलेंगे क्या ...कुछ ऐक ऐसे बिंब है जिनके सहाने कहानी कहने की कोशिश की गई है । फिल्म का नाम मसान क्यों है वो अंत में ही समझ आता है । अपने भीतर के भावों की गहराई को मसान से गुज़रते देखने के
बाद ज़िंदगी में आगे बढ़ने की जो सहज जीवंत प्रयास है वो आखिरी 5 मिनट में ही समझ आता है । फिल्म की कहानी की ही तरह डायलॉग्स और गानों में काव्यात्मकता है जो बेहद खूबसूरत है । सिनेमाहॉल से बाहर आकर भी एक गीत कानों में बेसाख्ता मद्धम-मद्धम चलता रहता है.....। तू किसी रेल से गुज़रती है....मैं किसी पुल सा थरथराता हूं ।

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

बस्सी साहब के नाम खुली चिट्ठी

सुना है बस्सी साहब और केजरीवाल की मुलाकात में आनंद पर्बत वाली घटना का ज़िक्र हुआ तो बस्सी साहब ने तर्क दिया था कि लड़की ने लड़के को प्रवोक किया था ।

कमिश्नर साहब

बस्सी साहेब आप दिल्ली पुलिस के मुखिया हैं । आप के पास तो गल्ली मुहल्ले में हो रहे जुर्म से लेकर देश के बड़े -बड़े अपराधों से जुड़ी तमाम छोटी बड़ी जानकारियां होतीं होंगीं । अगर आप कह रहे हैं तो मान लेते हैं कि 35 बार चाकू के वार सहने वाली मीनाक्षी ने  ज़रुर लड़के को प्रवोक किया होगा । ये भी कोई बात हुई कि आप किसी के मुंह पर थूक दो .... फिर जवान जहान लड़के तो गर्म खून के होते ही हैं .. गुस्से में लड़की को मज़ा चखा दिया । बिल्कुल सही इस बात की तस्दीक तो मुलायम सिंह भी कर चुके हैं कि लड़कों से तो गलतियां हो ही जाया करती हैं ... .फिर चाहे वो छोटी-मोटी छेड़खानी हो या फिर रेप की वारदात । आपके लिए,आपके साथ सदैव का नारा भले ही दिल्ली पुलिस का हो ...लेकिन आन्ध्र की पुलिस भी लड़कियों की भलाई की कम चिंता थोड़े ही करती है । याद है ना   आन्ध्रप्रदेश के एक डीजीपी ने भी कुछ साल पहले लड़कियों  को याद दिलाया था कि वो अगर छो्टे औऱ भड़काऊ कपड़े पहनेंगी और फिर रोएंगी कि लड़कों ने छेड़ दिया तो ऐसे नहीं चलेगा । कहीं ज़िम्मेदारी तो लड़कियों को भी लेनी होगी । सही बात है पहले लड़कियां भड़काऊ कपड़े पहन उकसाएं और उसके बाद पुलिस मामलों को संभालती चले ..ये क्या बात हुई । बात पुरानी नहीं है बस्सी साहब को भी शायद याद हो ....कि निर्भया केस में अपराधियों के वकीलों ने भी तो सही याद दिलाया था कि अगर आप गैर लड़के के साथ रात में फिल्म देख कर वापस आती हैं तो ऐसी घटनाओं की आशंका बढ़ जाती है  । अपराधी मुकेश भी तो ठीक ही कह रहा था कि अगर वो जज्बाती बेवकूफ लड़की 16 दिसंबर की रात उस सब का विरोध न करती जो उसके साथ हो रहा था तो शायद आज ज़िंदा होती ।

ये लड़कियां भी कितनी बेवकूफ होती हैं ...क्यों आखिरकार विरोध करती हैं...क्यों आवाज़ उठाती हैं....क्यों नहीं चुपचाप सारी चीज़ें जब्त कर ले जाती हैं । मुहल्लों में लफंगों की सीटियां और गंदी नज़रों में भी बुरा मानने जैसा क्या है ....।  कोई गुंडा बस या ट्रेन में बदतमीज़ी करे तो इसमें भी कुछ खराबी नहीं कुछ देर बात खुद ही चुप हो जाएगा । इज्जत पर हाथ डालने वाले भी क्या खास बिगाड़ लेंगे ... आखिर उसके बाद भी ज़िंदा तो रह पाएंगी ...इज्जत चाहे या रहें क्या फर्क पड़ता है जान तो रहेगी । प्रवोक करने का क्या मतलब है । चुप रहने में ही भलाई है । समझती नहीं तभी तो जान से जाती हैं ।बड़े और अनुभवी लोगों की बातें न सिर्फ माननी चाहिए बल्कि उन पर सवाल भी नहीं करने चाहिए ...।  मसलन कोई इन सभी लोगों  से पूछे कि गुड़िया रेप केस में
उस छोटी बच्ची ने आरोपी को कैसे प्रवोक किया होगा... या फिर 3 साल से लेकर 80 साल तक की पकी उम्र की महिला के साथ छेड़खानी , हत्या रेप जैसे मामलों में कौन-कौन कब छोटे कपड़े पहन अपराध के लिए उकसाता होगा ।  गलती बस्सी साहेब या मुलायम या आन्ध्र के उस डीजीपी की नहीं है जो ऐसा सोचते हैं । दरअसल महिलाओं को लेकर असमान और कमतरी की दरिद्र  सोच इस देश के डीएनए में है जिसे बदला नहीं जा सकता । इसलिए बस्सी साहब मैं मानती ही नहीं हूं बल्कि इन सारे सुझावों पर अमल भी करती हूं । सही में दिल्ली में अगर ज़िंदा रहना है तो प्रवोक करना खतरे से खेलना नहीं ।अपनी सुरक्षा
अपने हाथ ।

निवासी दिल्ली





मंगलवार, 14 जुलाई 2015


घर-घर में बाउंसर

bouncer 1 तेज़ अंग्रेजी संगीत, पीली सी कोठी के बेसमेंट में बने एक आधुनिकतम जिम से आ रहा है। यहां आपको 15-20 हट्टे-कट्टे नौजवान 50-50 किलो के डंबल उठाते, ट्रेडमिल पर दौड़ते और फिर थक कर बीच-बीच में आदमकद आईने में खुद को निहारते नजर आएंगे।
महरौली से महज़ दो किलोमीटर दूर असोला और फतेहपुर बेरी केइन गाँवों को बाउंसरों का गाँव कहा जाता है। बाउंसर्स यानी मॉल्स-पब में सुरक्षा के काम में लगे हट्टे-कट्टे पहलवान। दिल्ली और एनसीआर में बाउंसरों का काम करने वाले 90 फीसदी नौजवान इन्हीं गाँवों से हैं।
जिम जाना बन गई आदत
काले ट्रैक सूट में जिम में ट्रेनिंग करते 23 साल के योगेश का कद 6 फीट 2 इंच है। अपने 17 इंच के डोले दिखाते हुए वह बेहद गर्वीले अंदाज़ में बताते हैं,”पिछले 3 साल से मैं गुडग़ांव के एक पब में बतौर बाउंसर काम कर रहा हूं और रोज़ शाम को 2 घंटे वेट ट्रेनिंग के लिए जिम आना उनका रुटीन है।” बाउंसरी का चस्का कैसे लगा पूछने पर वो बताते हैैं, ”देखिए पेशे की शुरुआत बॉडी बिल्डिंग के शौक से शुरू हुई। बॉडी बिल्डिंग के लिए मेरे भाई जिम आते थे, उनके साथ मैं भी आने लगा। बाद में पता चला कि जिम में आने वाले बहुत से लोग बाउंसरी करते हैं तो मैं भी लग गया।”
किशोर भी ले रहे ट्रेनिंग
दिल्ली के 320 गाँवों में से असोला उन गाँवों में एक है, जहां शहरीकरण तेज़ी से पैर पसार रहा है। ज़मीन की कीमतों में उछाल ने जिन गाँववालों को करोड़पति, अरबपति बना दिया है वो धीरे-धीर ठेठ गंवई पृष्ठभूमि से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे हैं। गाँवों के कई घरों में गाय भैंसों के साथ बड़ी महंगी गाडिय़ां भी खड़ी दिख जाएंगी। नतीजन इस गाँव के 15-16 साल के लड़के भी बाउंसर बनने की रेस में शामिल हैं। 17 साल का पुनीत अभी दसवीं का छात्र है, लेकिन पिछले एक साल से वो रोज़ाना जिम में वेट ट्रेनिंग के लिए आता है। वो कहता है, ”अभी से करूंगा तभी तो आगे चलकर बॉडी अच्छी दिखेगी।” वह बताता है कि अगर पढ़-लिखकर कुछ नहीं कर पाए तो कम से कम बाउंसरी तो कर ही लेंगे।
व्यक्तित्व विकास की भी ले रहे ट्रेनिंग
बाउंसर बनने की होड़ दूसरे लोगों के लिए पहेली हो सकती है, लेकिन गाँववालों के लिए नहीं। इलाके में लड़कों का जिम चलाने वाले करण सिंह तंवर (36) समझाते हुए कहते हैं, ”गाँव के लड़कों के लिए ये कोई नई बात नहीं। हमारे यहां अखाड़ों में कुश्ती और कबड्डी जैसे खेल हमेशा युवाओं के शगल में शामिल रहे हैं। ये अलग बात है कि अब अच्छा शरीर रोजगार दिलाने में भी मदद कर रहा है। कुश्ती में पैसा कम होने की वजह से अखाड़ों की जगह अब जिम ने ले ली है और पहलवानी की जगह बाउंसरी ने।”

रविवार, 12 जुलाई 2015

ग्रीस कैसे बना नेशन फॉर सेल ?


बीते दिनों ग्रीस की संसद में एक प्रस्ताव पारित किया गया "कि देश बिकाऊ है ,बोली लगाओ और खरीद लो । इस प्रस्ताव के तहत देश की कई संपत्तियां नीलामी के लिए तय कर दी गई हैं । ये बेहद हैरत भरा है देखना
कि दुनिया को प्लेटो ,अरस्तु का दर्शन देने वाला देश कैसे देखते देखते कंगाल हो गया । अपने राजनीतिक और आर्थिक दर्शन से दुनिया भर को राह दिखाने वाली सभ्यता कैसे उस चौराहे पर खड़ी हो गई जहां से हर रास्ता
बेमंज़िल दिखाई पड़ता है । लोकतंत्र, सत्ता और आर्थिक व्यवस्था के बुनियादी असंतुलन के जिस खतरनाक मुहाने पर ग्रीस इस वक्त खड़ा है उसकी शुरुआत तो कई साल पहले हो गई थी लेकिन शायद किसी इतने खराब हालातों की ऐसी आशंका नहीं लगाई होगी ।
अर्थशास्त्री इस संकट के पीछे के कारणों को लेकर कई तरह की थ्योरी सामने रख रहे हैं कि कैसे यूरो ज़ोन की आर्थिक रिश्तेदारी ने ऐसे हालात पैदा होने में मदद की ? कैसे केंद्रीय बैंक ने प्रतिस्पर्धात्मक अवमूल्यन कर  आग में घी डालने का काम किया । कुछ का कहना है कि संकट ग्रीस की सोशलिस्ट सरकार की कल्याणकारी स्कीमों के बोझ के चलते बढ़ा जबकि कर्ज के मारे अर्थव्यवस्था के कंधे टूटे जा रहे थे वहीं कईयों का कहना है कि ये  पूंजीवादी व्यवस्था के पराभव का शुरुआती दौर है ,जिसके कई खतरनाक पडाव अभी इस दुनिया के लिए देखने बाकी हैं और ग्रीस तो शुरुआत भर है ।
 बात सही भी है ग्रीस का मौजूदा संकट पश्चिम के उस तथाकथित उदारवाद की ऐलानिया विफलता है जिसने उधारवाद की संस्कृति को बढ़ावा दिया। किसी ने कहा सही ही कहा  कि ये संकट आयातीत संकट है , इस बात को अगर बहुत मोटे तरीके से समझा जाए तो एक उदाहरण ही काफी है , दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और शक्तिशाली देश अमेरिका इस संकट में आकंठ डूबा है , बस फर्क इतना है कि बुलबुला अभी फूटा नहीं । यूरोज़ोन की जिस आर्थिक सिस्टम में ग्रीस और दूसरी कमज़ोर अर्थव्यवथा वाले देश खुद को असहाय पा रहे हैं वो दरअसल अमेरिका का ही आर्थिक दर्शन है । अमेरिका की जनसंख्या इस वक्त 30 करोड़ है  पर वहां बाज़ार में 120 करोड़ क्रेडिट कार्ड घूम रहे हैं । सोचने वाली बात है कि किस तरह क्रेडिट कार्डधारी ये कर्ज़ा चुका पाएंगे । यहां क्रेडिट हर बात का मूलमंत्र है ,जितना मन आए कर्ज लीजिए पर उसे लौटाने का कोई रास्ता नहीं ।

ये  चार्वाक का ही दर्शन है जिन्होंने कहा था कि जो बाज़ार में उधार मिले ले आओ ।ज ब चुकता करने का वक्त आए तो हाथ खड़े कर दो ,कोई तुम्हारा क्या बिगाड़ लेगा । ग्रीस ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं ...ये तो शुरुआत है । बात अगर भारत की  करें तो अगर संभले नहीं तो कुछ सालों में यही हाल देखने को मिल सकता है । पिछले ढाई दशक से भारत भी मुक्त अर्थव्यवस्था और उदारवाद के मायाजाल में उलझा हुआ है। विदेशी कर्ज पूंजी निवेश के नाम पर हमारे अर्थतंत्र की  रगों में खून बनकर दौड़ रहा है। सत्ता में बैठे लोग वैचारिक  भिन्नता भूलकर आर्थिक सुधारों की भूलभुलैया में फंसते जा रहे हैं। भारत का परंपरागत आर्थिक चिंतन धूल खा रहा है तथा भोगवादी मानसिकता नई संस्कृति के रूप में उभरी है।

अच्छे दिनों के पैरोकार प्रधानमंत्री विकसित देशों से ऋण लेने को लेकर जिस तरह आतुर दिख रहे हैं ये भी कोई अच्छे संकेत नहीं । ग्रीस की बीमारी जो सबको आज दिख रही है उसके मूल में विकसित देशों के तौर तरीके ही हैं,कुछ समय बाद संभव है कि इसके लक्षण भी दिखाई देने लग जाएं । 

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

वो कौन थीं ?



झाड़ियों के पीछे झुरमुट में से एकाएक निकला वो चेहरा आँखों में ऐसा अटका कि कार के साथ मेरी आँखें भी वहां के मंज़र से गुज़र गई,  लेकिन ज़हन उसी झाड़ी के पास रह गया ।
 रात 12.30 बजे  का वक्त , न्यूज़ चैनल की ईवनिंग शिफ्ट निपटाकर घर लौट रही थी । रोज़ाना ट्रक -टम्पो की धुंआ छोड़ती कतार की भूलभुलैया के बीच में से कालिंदी कुंज के पुल से निकलना किसी चुनौती से कम नहीं रहता था ,ऐसे में उस दिन मैं और ड्राइवर दोनों खुश  थे कि चलो आज वक्त पर घर पहुंचेंगे....ट्रकों की भीड़ कम थी । ऐसे में जैसे लाल बत्ती पार कर आगे की ओर गाड़ी मुडी तो उस घुमावदार मोड़ के किनारे पर चार ऐसे चेहरे नज़र आए जो पहली नज़र में कोई देख ले  तो भूत समझ डर ही जाए । काली रात के स्याह अंधेरे में बेतहाशा पाऊडर की सफेदी से झक सफेद किए लड़कियों के चेहरे  , वो चारों एक झुंड बनाए बैठी थीं जैसे कि स्कूल कॉलेज में लड़कियां खेल के पीरियड में बातें करनी बैठ जाती हैं ।

18-20 साल की उम्र की वो लड़कियां जिनके चेहरों को भूतिया सफेदी और नकली जे़वरात की चमक रात के उस अंधेरे को  ऐसे चुंधिया दे रही थी कि देखने वाला एक पल के लिए हतप्रभ ही हो जाए कि क्या देख लिया ।  सबकुछ आंखों में खटक रहा था और ज़हन में  भी खटक ही गया

खैर हाव-भाव और वो चमक देख इतना समझ आ ही गया कि रात के उस पहर वो लड़कियां वहां क्यों बैठी थी ... कौन थी वो....कहां रहती थी.....ऐसे जाने कितने ही सवाल मेरे जहन में रात भर गुज़रते रहे ।  ये बात उस रास्ते की है जहां.... पर रात के वक्त ट्रक और टैम्पो ही ज्यादा गुज़रते हैं ।  या फिर देर रात ऑफिस की पाली कर घर वापस जाने वाले लोग.... इससे पहले मैंने ऐसी जगहों के बारे में सुना ही था कि फलां फलां जगह हैं जहां लड़कियां  पिक अप प्वाइंट पर खड़ी होती है,लेकिन जब पहली बार ऐसा कुछ देखा तो दिल और दिमाग सुन्न हो गया ।
ऐसी ज़िंदगी आखिर कौन चाहता होगा .... शायद कोई इनसान नहीं । जो लोग ये तर्क देते हैं कि  कुछ लोग लक्ज़री के लिए ऐसी ज़िंदगी का चुनाव करते हैं वो इन लड़कियों के मामले में तो गलत ही हैं ....सरासर । जगह का चुनाव बताता है कि मसला  लक्ज़री की चाह का नहीं ।

वरना कौन आधी रात में अजीब ढंग से सजसंवर कर निकलेगा , रास्ते के उस बदनाम मोड़ पर  इंतज़ार करेगा । ये यकीनन मजबूरी है .. । उस रात उन लड़कियों के नकली चेहरे पर जो हंसी दिख रही थी वो उनके चेहरे पर पुती लाली की ही तरह भद्दी और नकली थी । बेहद नकली । लेकिन इस दृश्य ने ज़िंदगी का जो चेहरा दिखा दिया एकदम असल था । गंदा और भयावह ।

वहीं नजर वहां से हट  गाड़ी  के पीछे वाली सीट पर पड़ी जहां..... कल के अखबार के सिटी पेज का चमकीला सा पन्ना पड़ा था । उस पर सेल्फी विद डॉटर कॉटेस्ट के विनर का चेहरा छपा  था ....हेडिंग थी बेटी बचाओ ...बेटी पढ़ाओ....। मन जाने कैसा सा हो गया