मंगलवार, 14 जुलाई 2015


घर-घर में बाउंसर

bouncer 1 तेज़ अंग्रेजी संगीत, पीली सी कोठी के बेसमेंट में बने एक आधुनिकतम जिम से आ रहा है। यहां आपको 15-20 हट्टे-कट्टे नौजवान 50-50 किलो के डंबल उठाते, ट्रेडमिल पर दौड़ते और फिर थक कर बीच-बीच में आदमकद आईने में खुद को निहारते नजर आएंगे।
महरौली से महज़ दो किलोमीटर दूर असोला और फतेहपुर बेरी केइन गाँवों को बाउंसरों का गाँव कहा जाता है। बाउंसर्स यानी मॉल्स-पब में सुरक्षा के काम में लगे हट्टे-कट्टे पहलवान। दिल्ली और एनसीआर में बाउंसरों का काम करने वाले 90 फीसदी नौजवान इन्हीं गाँवों से हैं।
जिम जाना बन गई आदत
काले ट्रैक सूट में जिम में ट्रेनिंग करते 23 साल के योगेश का कद 6 फीट 2 इंच है। अपने 17 इंच के डोले दिखाते हुए वह बेहद गर्वीले अंदाज़ में बताते हैं,”पिछले 3 साल से मैं गुडग़ांव के एक पब में बतौर बाउंसर काम कर रहा हूं और रोज़ शाम को 2 घंटे वेट ट्रेनिंग के लिए जिम आना उनका रुटीन है।” बाउंसरी का चस्का कैसे लगा पूछने पर वो बताते हैैं, ”देखिए पेशे की शुरुआत बॉडी बिल्डिंग के शौक से शुरू हुई। बॉडी बिल्डिंग के लिए मेरे भाई जिम आते थे, उनके साथ मैं भी आने लगा। बाद में पता चला कि जिम में आने वाले बहुत से लोग बाउंसरी करते हैं तो मैं भी लग गया।”
किशोर भी ले रहे ट्रेनिंग
दिल्ली के 320 गाँवों में से असोला उन गाँवों में एक है, जहां शहरीकरण तेज़ी से पैर पसार रहा है। ज़मीन की कीमतों में उछाल ने जिन गाँववालों को करोड़पति, अरबपति बना दिया है वो धीरे-धीर ठेठ गंवई पृष्ठभूमि से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे हैं। गाँवों के कई घरों में गाय भैंसों के साथ बड़ी महंगी गाडिय़ां भी खड़ी दिख जाएंगी। नतीजन इस गाँव के 15-16 साल के लड़के भी बाउंसर बनने की रेस में शामिल हैं। 17 साल का पुनीत अभी दसवीं का छात्र है, लेकिन पिछले एक साल से वो रोज़ाना जिम में वेट ट्रेनिंग के लिए आता है। वो कहता है, ”अभी से करूंगा तभी तो आगे चलकर बॉडी अच्छी दिखेगी।” वह बताता है कि अगर पढ़-लिखकर कुछ नहीं कर पाए तो कम से कम बाउंसरी तो कर ही लेंगे।
व्यक्तित्व विकास की भी ले रहे ट्रेनिंग
बाउंसर बनने की होड़ दूसरे लोगों के लिए पहेली हो सकती है, लेकिन गाँववालों के लिए नहीं। इलाके में लड़कों का जिम चलाने वाले करण सिंह तंवर (36) समझाते हुए कहते हैं, ”गाँव के लड़कों के लिए ये कोई नई बात नहीं। हमारे यहां अखाड़ों में कुश्ती और कबड्डी जैसे खेल हमेशा युवाओं के शगल में शामिल रहे हैं। ये अलग बात है कि अब अच्छा शरीर रोजगार दिलाने में भी मदद कर रहा है। कुश्ती में पैसा कम होने की वजह से अखाड़ों की जगह अब जिम ने ले ली है और पहलवानी की जगह बाउंसरी ने।”

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